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के लिये विद्याधाम दक्षिण देश के देवगिरि में मुनि धर्मसागर और मुनि राजविमल के साथ भेजें।
वहाँ से तनिक समय में शास्त्रावगहन करके त्रिपुटी मुनि गुरुवर के पास नाडलाई गांव में आये। तब हीरहर्षको पूज्य श्रीने वि. सं. १६०७ में गणि-पण्डितपद से विभूषित किया। इतना ही नहीं बल्कि वि. सं. १६०८ में माघ सुद ५ को नाडलाई में ही मुनि धर्मसागर और मुनि राजविमल के साथ मुनि होरहर्ष गणि को भी उपाध्याय-पद का दान दिया। उपाध्यायजी हीर हर्ष के चारों ओर से चरित्र प्रभा की कोति, ज्ञानका प्रकृष्ट वैभव, विद्वान शिष्य सम्पत्ति और शासन की रक्षा एवं प्रभावना की बडी तमन्ना इत्यादि गुण-मौक्तिकों से प्रसन्न होकर पू. आचार्य भगवतने सिरोही नगर में वि. सं. १६१० पोष सुद पंचमी के पवित्र दिन बादशाही ठाठ से पंच परमेष्ठी के तृतीयपद आचार्यपद पर हीर हर्ष उपाध्याय की प्रतिष्ठा की। तबसे सारा देश में आचार्य श्री विजय हीर सूरिजी नामसे मशहुर बनें।
कालराजा दिन-रात रूप दंडसे मनुष्य-आयुष्य का टुकडा ले नाता है। माँ कहती हैं, 'मेरा लडका बडा हुआ। मगर आयुष्यमें तो कम हुआ।' ऐसे विजयदानसूरि महाराजा आयुष्य पूर्ण होनेसे ससमाधि वि. सं. १६२२ वैशाख सुद १२ को वडावली में स्वर्गधाम सिधायें। तब सारे गच्छका भार विजय होर सूरीश्वरजी महाराज के शिरताज पर आ गया। श्री संघनें पूज्य श्री को गच्छ नायक-भट्टारक की पदवी का बहुमानकर अपना कर्तव्य का सच्चा पालन किया।
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