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दीक्षा और आचार्यपद :
जब हीरजी शिशुवयको विदा कर तेरह साल की नवीन विकसित युवावय में प्रवेश कर रहे थे। तब आपके माता-पिता नश्वर देह को त्यागकर स्वर्ग प्रति प्रयाण कर गये। वह वज्रघात सदृश वृत्तांत से आपका अंतर वेदनासे बहुत आक्रांत हो गया। मगर आपनें जिन-वाणी का सुधा-स्वाद गुरुमुखसे बार-बार लुटे थे। इस से आर्तध्यान वश न होकर आपके ज्वलंत वैराग्य में असार संसार का निमित्त दोगुणा बढ गये। इस दुःख को दूर करने के लिये आपको अपनी बडी बहिन विमला अपने ससुराल पाटण ले गई। मगर आपका आत्म-पंखी अब संसार-पिंजर को छोड कर मुक्त-विहारी बनने के लिये किसी रास्ते को ढंढ रहा था।
___ इतने में आपके पुण्यबलसे आकषित न हुये हो ऐसे परमोपकारी सकल शास्त्रविद् आचार्यदेव विजयदानसूरीश्वरजो महाराज का सपरिवार पाटण शहर में शुभागमन हुआ। मेघका आगमन से प्रजा आनन्द विभोर बन जाती है। ऐसे सूरीश्वरका पुनित पाद-कमल से जनता के हृदय में हर्ष की लहर छा गई। पूज्यश्री के हृदयंगम और वेधक देशना प्रवाह से भव्य जनों को पाप-राशि सफा हो गई, और मिथ्यात्व-अंधेरा दूर हट जाने से सम्यकत्व का सहस्र रश्मि दिप्तीमान हुआ। आपके सद्बोधसे हजारों जीवोने देशविरति और सम्यकत्व आदि प्रतिज्ञा लेकर जीवन को निर्मल बनाया।
इसमें युवा हीरजीनें भी गुरुवर के पास कम-विदारिणी भव-नौका सदश संयम देने की प्रार्थना की। तब पूज्यश्रीने
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