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सिरोही में वरसिंह नामक बहुत धनी-मानी गृहस्थ था । उनके ब्याह की तैय्यारी चल रही थी। मंडप डाला गया था । सुबह-शाम शहनाई के बाजा बज रहे थे। सुहागण स्त्रिएँ घवल मंगल गीतें मधुर कंठ से ललकार रही थी। वरसिंह चुस्त धर्मी थे। रोजाना सुबह शाम सामायिक-प्रतिक्रमण उपाश्रय में करते थे। इस दिन उसने सामायिक सुबह लिया था। तब उनकी भाविपत्नी पू. सूरिजी को वंदनार्थ आकर वंदन करके पीछे, सूरिजी के पास बैठे हुये वरसिंह को भी उसने वंदना की। थोडे दूर बैठे हुये एक भाईने कहा, अब तो तुने दीक्षा लेने पडेगी। क्योंकि तेरी भाविपत्नी तुझको वंदन करके अभी गई। तब उसने कहा, जरूर मैं दीक्षीत बनूंगा। अब वो घर पर गये, सारा कुटुम्ब को इकट्ठा किया और अपनी दीक्षा की बात जाहिर की। बहुत अरसपरस चर्चा हुई। अंत में उनको विजय मिली। ये ही शादी का मंडप दीक्षा के मंडप में परिवर्तन हो गया। और ठाठ से उनको दीक्षा हुई। आप आगे पंन्यास हुये और १०८ शिष्य के गुरु बने थे ।
__ इसलिये विदित होता है कि सूरिजीने १०८ आदमीओं को दीक्षा दी थी। १०८ साधुको पंडित पद और सात साधुको उपाध्यायपद दिया था। आपको प्रबल पूर्व की पुण्याई से सब मिलाकर दो हजार साधु की संपदा थी याने आप दो हजार साधु के नेता थे। नेता हो जाने से प्रशंसा नहीं होती मगर समुदाय का संगठन, शासन के हित और रक्षा के लिये सदैव कटिबद्ध रहना वो सर्वश्रेष्ठ सराहनीय था। आपने अंतः तक वे कार्यका पूर्णपालन किया था।
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