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वि. सं. १६५२ के भा. सु. १० को मध्यरात्रिको आपने वाचक विमल हर्ष आदिको बुलाया । और कहने लगा, विजय सेनसूरिजी आये नहीं । इसलिये जैसी आप सबनें मेरी आज्ञा और सेवा उठाई है, ऐसी विजयसेनसूरिकी सेवा और आज्ञा का पालन करना । समुदाय में सदा संघठन रखना और शासन प्रभावना जैसी होवे ऐसी रीति से वर्तना । ऐसा मेरा अनुरोध है - आज्ञा है ।
और मैंने अभी तक सबको सारणा वारणा आदि प्रकार से सब कुछ कहा होगा । इस लिये सबको खमाता हुं-मिच्छा. मिटुक्कडं देता हूं । जाणे कोई हृदयमें वज्र न डालता हो ऐसी हृदयद्रावक सूरिजी की बाणी सुनकर शिष्योंका हृदय फुटने लगा और नेत्र में से अविरत अश्रुधारा बहने लगी ।
सोमविजयजीने कहा, आपने तो हमकों पुत्र जैसे पालन किया है । अंधेरे में गिरे हुये को प्रकाशमें लाये हो । आपका हमनें बहुत अपराध - गुन्हा किया है। आप तो गुणके सागर है । अतः विविध - त्रिविध हम सब आपको खमाते है । आप, क्षमा दान करें ।
आपने सकल जीवराशिको क्षमापना करते हुवे चारशरणां, सुकृतका अनुभोदन और दुष्कृतकी गर्हा की । सुबह हुई । भा. सु. ११ का दिन सुबह से सारा उपाश्रय श्रावक-श्राविकासें ठसों ठस भर गया । आप तो ध्यान में लीन हो गये थे । शाम हुई, प्रति क्रमण किया। बाद आप, पध्मासन में बैठकर हाथमें माला लेकर अरिहंतध्याममें मस्त बन गये । चार माला -माला गीते - गोनते सहसा गिर पडे, और
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पूर्ण हुइ ! पाँचवीं आत्म-हंसलो देह
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