Book Title: Jagadguru Heersurishwarji
Author(s): Punyavijay
Publisher: Labdhi Bhuvan Jain Sahitya Sadan

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Page 37
________________ इतने में देवीमिश्र नामक ब्राह्मण पंडित वहां आये। बादशाहने पूछा, पंडितजी ! सूरिजी कहते है व ठीक है या नहीं। पंडितजीने कहा, हजूर ! सूरिजीके वाक्य वेदध्वनि जैसे है, इसमें कुछ विरुद्ध नहीं। वे तो बडे विद्वान, तटस्थ एवं स्वच्छहृदयी महात्मा है। इस वाक्य से सूरिजीको ओर बादशाहकी श्रद्धा बज्रलेपबत् बन गई इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। सम्य बहुत हो गया। बादशाह महलमें गये और सूरिजी उपाश्रयमें पधारे। सूरिजीको बार-बार मुलाकात से और विविध विषयको चर्चा से बादशाह को बहुत आनन्द हुआ। और सूरिजीको विद्वता से आफ्रीन होकर बोलने लगे, गुरुजी को जैन लोग जैन गुरु की तरह मानते-पूजते है। मगर वो तो सारे राष्ट्र को वन्द्य और पूजनीय है। इस लिये उनका भारी सम्मान करना चाहिये । ऐसा सोचकर वे विचार में बैठ गये। एक दिन अपनी राजसभा में सूरिजोको 'जगद्गुरु' पदसे अलंकृत किया और इस पद-प्रदानके हर्षमें बादशाहने पशु-पंखीको बंधन से मुक्त कर आजादी दे दी। एक बार धर्मचर्चा चल रही थी। उस समय बीरबलको भी प्रश्न पूछनेकी अभिलाषा हुई। इसलिये बादशाह की अनुज्ञा याची। बादशाहने मंजूरी दी। तब बीरबलने शंकर सगुण के निर्गण, ईश्वर ज्ञानी के अज्ञानी इन दो विषय के प्रश्न पूछे, सूरिजीने तर्क और विद्वताके साथ ऐसा समाधान किया कि, बीरबल सुनकर बडे खुश हो गये। इस मुलाकात के बाद बहुत दिन तक सूरिजीको बादशाह मिल न सके। इसलिये सूरिजीको मिलनेकी सम्राटको बडी आतुरता हुई। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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