Book Title: Jagadguru Heersurishwarji
Author(s): Punyavijay
Publisher: Labdhi Bhuvan Jain Sahitya Sadan

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Page 43
________________ 32 तरह अपनी वृद्धावस्था और दूसरी तरह शासन- उद्योत के कारण बादशाहकी विज्ञप्ति ; 'इतो व्याघ्रः इतो दुस्तटी:' ऐसा सूरिजी को हो गया । मगर सूरिजीनें निजी स्वार्थको गौण करके विजयसेन सूरिजीको दिल्ली जाने को अनुज्ञा दी। उन्होंने भी गुरु आज्ञा शिरोधार्य करके वि. सं. १६४९ मा. सु. ३ को प्रयाण किया । विजयसेन सूरिजी विचरते-विचरते ज्येष्ठ सुद १२ के मंगल दिन लाहोर पधारे । तब भानुचंद्रजीनें संघ के साथ भव्य स्वागत यात्रा निकाली थी । उनमें बादशाहनें हाथी-घोडा - शाही बॅन्डपार्टी आदि भेज कर स्वागत की शोभा द्विगुण बढा दी थी । बादशाह के पास विजयसेनसूरि बहुत दिन रहे थे। एक दिन उन्हों के शिष्य नंदिविजयजीनें विधविध देशोकें राजवींओंसे युक्त राजसभा में अष्टावधान किया। तब आपके कौशल्य से चमत्कृत होकर बादशाहनें 'खुशफहम्' पद से आपको विभूषित किया । विजयसेनसूरिने बादशाहके हृदय-पट पर ऐसा प्रभाव डाला था कि उन्होंका आप के उपर बहुत पूज्यभाव हो गया था । इस कारण आपका ज्यादा ज्यादा सन्मान करते थे, और बड़े बड़े उत्सवों में सहायता भी देते थे । आपका भारी सम्मान देखकर कई ब्राह्मण आदिनें अकबर के दिल में यह बात ठोंस दी, कि जैन लोग इश्वरको नहीं मानते है, गंगाको पवित्र नहीं मानते है, सूर्यदेव को नहीं मानते है । उक्त कथमसे भोले बादशाह को चोट लग गई। उसने विजयसेनसूरि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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