Book Title: Jagadguru Heersurishwarji
Author(s): Punyavijay
Publisher: Labdhi Bhuvan Jain Sahitya Sadan

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Page 21
________________ ___10 आकर कहा कि, मेरे गुरुजी, मेरी पुस्तकें नहीं देते है। सूरिजीने सहज भावसे कहा, आपने कोई गुहा किया होगा। इसलिये नहीं देते होंगे। वह यह सुनके जगमालजीको संतोष न हुआ। बल्कि होरसूरिजी पर क्रोधित होकर वहाँ से पेटलाद गांव गये। और वहाँ के हाकिम को हीरसूरिके विरुद्ध बडा दोष लगाकर उनको पकडने के लिये दो-तीन बार सिपाहिओं को भेजा। मार सूरिजी मिले नहीं। इस उपद्रवसे बचानेके लिये श्रावकोंने घूस देकर हीरसूरिजी महाराज को सांत्वन दिया। _ वि. सं. १६३४ में विजय होरसूरिश्वरजी महाराजाका कुणगेर (अमदावाद) में चातुर्मास था। तब उस समय उदयप्रभ सूरिने आचार्य श्री को कहलाया। आप, वहाँ सोमसुंदर सूरि चर्तुमास बीराजे है, उनके साथ क्षमापना कर दो। हीर सूरिजीने कहा, मेरे गुरुजीने खमत खामणां नहीं किया है, मैं कैसे करूँगा। इस असाधारण निमित्त से उदयप्रभसूरि बडे इर्षान्वित बन गये। और पाटण जाकर वहाँ का सुबेदार कलाखांको उल्टा-सुल्टा समझा कर, हीर सूरिजी को कैद करने के लिये एक सौ सिपाहिओं को भेजा। मगर वडावली संघनें तीन महिना तक सूरिवर को गुप्त रक्खा और बचा लिया। __ विजय हीर सूरिजी महाराज विहार करते वि. सं. १६३६ में अमदाबाद पधारे। तब हाकेम शहाबखाँने आकर कहा। क्या आप वर्षा को रोकते हो? इससे आपको क्या लाभ है ? व गलत समाचार सुनकर सूरिजीने कहा, भाग्यशाली, हम तो चीटीयांसे लेकर कुंजर तक दया करनेवाले है। याने सारे नगत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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