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और सुंदरी से दूर रहते है। स्वयं केश लोंछन करते है। माधुकरी से जीवन-वृत्ति चलाते है इत्यादि कई गुणों का गुणगान करके बहुत प्रशंसा की। तब अकबरने अपना हस्ताक्षर से विनंति पत्र और दूसरा आग्रा जनसंघ का पत्र, इन दोनों पत्र के साथ माणुकल्याण और थानसिंहरामजीको अहमदाबाद गुजरात के अपने सुबा शाहबखां के पास भेजा। दोनों सेवकने अविरत प्रयाण कर अहमदाबाद आकर शाहबखां को दोनों पत्र दे दिया ।
शाहबखांने विनम्र होकर पत्र को शिर पर चढायें । और पत्र पढने लगे। इसमें क्या लिखा होंगे व सुनने को वाचक भी बडे. उत्साहित बन गये होंगे।
"आचार्य होरसूरि को हाथी, घोडे, पालखी, हीरा, मोती, इत्यादि किसी भी साज चाहिये वो देकर सम्मान के साथ दिल्ली की ओर प्रस्थान करावें।"
शाहबखां पढकर बहुत आनन्दित हुये। और मनमें शर्म भी आई, कि मैंने उस महापुरुष का बडा अपराध किया है। इसलिए मैं अपना मुँख उस महात्मा को कैसे दिखाऊं। पुनः सोचा, वो तो बडे करुणा के अवतार है। सबके उपर अनुग्रह को छांट डालनेवाले है। ऐसे अपना मनको उत्साहित करके अहमदाबाद के अग्रणी श्रावकों को बुलाया। और दोनों पत्र दिया। पत्र को पढकर सब हर्ष और खेद के हिंघोले हींधने लगे ।बादशाह के आमंत्रण से आनन्द हुआ। और खेद भी इसलिये हुआ कि, बादशाह बुलाकर क्या करेंगे? किसी विरोधीने बादशाह को क्या-क्या कहा होगा? क्या मालुम? म्लेच्छ राजबी है।
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