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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के साथ तत्कालीन सामाजिक और सांस्कृतिक पीठिका का अध्ययन भी इस सन्दर्भ में अधिक उपादेय होगा क्योंकि कोई साहित्य अपने समाज का प्रतिबिंब, प्रतिनिधि और पथप्रदर्शक भी होता है अतः जैन मरुगुर्जर भाषा साहित्य की सामाजिक-सांस्कृतिक पीठिका भी संक्षिप्त रूप से आगे प्रस्तुत की जा रही है। __आदिकालीन जैन साहित्य की पृष्ठभूमि-गुप्तकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग था। कालिदास, अमरसिंह, आर्यभट्ट जैसी विभूतियों की कृतियों से आज भी देश का मस्तक उन्नत है । हूणों के आक्रमण और गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ ५वीं शताब्दी से ही राजनीतिक विशृङ्खलन प्रारम्भ हुआ। राजसत्ता के लिए परस्पर युद्ध, केन्द्रीय शासन के सुदृढ़ न होने से खण्डराज्यों के उदय के साथ जनता में अनिश्चय और असुरक्षा की भावना पनपने लगी। मरुगुर्जर (पुरानी हिन्दी) की जननी अपभ्रंश और उसके साहित्य का प्रारम्भ भी छठीं-सातवीं शताब्दी से होता है। भारत की राजनीतिक स्थिति १३वीं शताब्दी तक इसी प्रकार डाँवाडोल बनी रही । अतः इस परिस्थिति और इससे उत्पन्न प्रवृत्तियों का भारतीय जनजीवन और साहित्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा क्योंकि राजा ही काल का कारण होता है। अतः इस युग के साहित्य का अध्ययन करने के लिए तत्कालीन राजनीतिक एवं धार्मिक स्थिति का अध्ययन करना बड़ा आवश्यक है।
गुप्तों के पश्चात् ७वीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध में हर्षवर्धन ने उत्तर भारत में एक साम्राज्य स्थापित किया किन्तु दक्षिण में पुलकेशिन के समान सशक्त साम्राज्य होने के कारण देश उत्तर और दक्षिण दो भागों में विभक्त हो गया। राजसत्ता का केन्द्र पाटलिपुत्र से हटकर कन्नौज आया
और हर्ष के पश्चात् कान्यकुब्ज पर आधिपत्य जमाने के लिए राजाओं में होड़ लग गई और अन्ततः गुर्जर प्रतिहार इस पर अपना अधिकार स्थापित करने में सफल हो गये। १०वीं शती में प्रतिहारों के पतन के पश्चात् विघटन और विभाजन की प्रक्रिया जब प्रत्येक क्षेत्र में तीव्रतर हो गई थी ठीक उसी समय महमूद गजनवी के जोरदार आक्रमण प्रारम्भ हुये। प्रतिहारों के पतन के बाद कान्यकुब्ज से काशी तक के भू-भाग पर गाहड़वाल राजाओं ने जयचन्द्र के समय तक अपना अधिकार रखा किन्तु मुहम्मद गोरी द्वारा जयचन्द के पराजित हो जाने के बाद इस केन्द्रीय प्रदेश पर मुसलमानों का शासन स्थापित हो गया।
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