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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
७९ राष्ट्री को माना जाता है। यह एक विचित्र बात है। इसके कारण भाषाविकास की ठीक संगति समझ में नहीं आती। • प्राकृत की भाँति अपभ्रंश में भी अधिकांश तद्भव रूप कृत्रिम हैं और कहने के लिए ही तद्भव हैं। नर-नारी अपने तत्सम रूप में जितना लोकगम्य है और लोकप्रचलित है उतना ‘णर णांरी' नहीं, इसी प्रकार विनु के लिए विणु, लंकापुरी के लिए लंकाउरी, अनुराग के लिए अणुराय, लोग के लिए लोय, वेद के लिए वेअ अपने मूल तत्सम से अधिक दुर्बोध शब्द हैं। यह बात नहीं कि इसके प्रयोक्ता संस्कृत से परहेज करते रहे हों क्योंकि वहाँ गगनांगन>गयणांगण, रत्नाकर > रयणायरु, ध्यानाग्नि > झाणागिण जैसे शब्द पहेली की तरह प्रस्तुत हैं। यही कारण है कि हिन्दी ही नहीं बल्कि बंगला, तेलगु आदि भाषायें भी अपभ्रंश की तुलना में संस्कृत रूपों को अधिक अपनाती हैं । अपभ्रंश में व्यञ्जनों का सप्रयास लोप
और 'ण' की भरमार, द्वित्त की बहुलता उसकी सहज प्रासादिकता में भारी बाधा बन जाती हैं। आधुनिक भाषायें अपभ्रंश की इन प्रवत्तियों को इसीलिए पूर्णतया नहीं स्वीकार कर पातीं, इसलिए अपभ्रंश को उनकी जननी कहने में बड़ी कठिनाई है। ___ इस बात को कुछ दूसरे ढंग से भी सोचा जा सकता है। कहा जाता है कि मुसलमानों के आक्रमण के बाद धर्म प्रचारकों ने लोक भाषाओं को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया किन्तु तथ्य यह है कि आ० भा० आ० भाषाओं के उदय के पश्चात् भी अपभ्रंश में साहित्य रचना होती रही। प्राकृत पैंगलम् का संकलन १४-१५ वीं शताब्दी में हुआ। उसमें संकलित सामग्री इस बात का प्रमाण है कि पाँच सौ वर्षों तक नव्य भाषायें अपने आसन पर अपभ्रंश के चलते पूर्णतया प्रतिष्ठित नहीं हो पाईं। क्या इसे मां-बेटी का झगड़ा समझा जाय ? राजसत्ता के लिए पिता-पुत्र के संघर्ष के उदाहरणों में पुत्र ही प्रायः पिता को सिंहासन च्युत कर देता है पर आश्चर्य है कि यहाँ माँ ही बेटी को आसन च्युत रखती है। यदि अपभ्रंश के प्रति इतना आग्रह न होता तो संक्रमण कालीन भाषा मरुगुर्जर, अवहट्ट या पुरानी हिन्दी की कालावधि ५०० वर्षों की लम्बी न होकर संक्षिप्त होती और प्रादेशिक भाषाओं का विकास अपेक्षाकृत शीघ्रतापूर्वक हो गया होता।
कुछ भी हो इतना तो निर्विवाद है कि साहित्यिक और परिनिष्ठित भाषा का व्यापक प्रभाव उस क्षेत्र की बोली, भाषा और उसके साहित्य
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