Book Title: Hindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Shitikanth Mishr
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 625
________________ ६०८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हरिकलश-आप राजगच्छीय श्रीधर्मसूरि द्वारा स्थापित धर्मघोषगच्छ के पाठक श्री जयशेखर के शिष्य थे। आपने सं० १५७२ से पूर्व ही विजयचन्द्रसूरि के समय मरुगुर्जर गद्य में 'भुवनभानुकेवली चरित्रं लिखा जिसकी अनेक प्रतियाँ विभिन्न शास्त्रभण्डारों में उपलब्ध हैं।' हेमविमलसूरि-आप तपागच्छ के ५५वें आचार्य थे। आपका समय सं० १५४८ से १५६८ तक मान्य है । आप सुप्रसिद्ध कवि एवं साहित्यकार थे । आप श्री सुमतिसाधुसूरि के शिष्य थे । आपकी काव्यकृतियों का उल्लेख पद्यखंड में किया जा चुका है। गद्य में आपकी एकमात्र रचना 'कल्पसूत्र बालावबोध' का उल्लेख श्री देसाई ने किया है। इन प्रसिद्ध गद्यलेखकों के अतिरिक्त कुछ ऐसी गद्य रचनायें भी प्राप्त हैं जिनके लेखकों का नाम एवं विवरण उपलब्ध नहीं हो पाया है। इनमें से कुछ का रचनाकाल ज्ञात है और वे १६वीं शताब्दी की रचनायें हैं। उनका भी यही उल्लेख करना समीचीन है। ऐसी रचनाओं में योगशास्त्र बालावबोध ( सं० १५११ रहवाडा ग्राम ), षडावश्यक बालावबोध (सं० १५११ कोटाणक ) और पुण्याभ्युदय (सं० १५३५) उल्लेखनीय है । पुण्याभ्युदय संस्कृत मिश्रित मरुगूर्जर भाषा की रचना है। इसमें उपदेशपर्ण लघकथायें गद्य में निबद्ध हैं। प्राकृत भाषा में लिखित नन्दिषेणकृत अजितशान्ति स्तवन पर सं० १५१८ में किसी अज्ञात लेखक ने बालावबोध बनाया है। कल्पसूत्रबालावबोध (सं० १५३८), प्रश्नोत्तररत्नमाला बालावबोध (सं० १५४३), उपदेशमाला प्रकरण बालावबोध (सं० १५४६), शीलोपदेशमाला बालावबोध (सं० १५५१) और श्राद्धविधि प्रकरण बालावबोध (सं० १५५६) आदि कुछ अन्य गद्य रचनायें भी १६वीं शताब्दी के अज्ञात लेखकों की प्राप्त हैं। इनके अतिरिक्त १६वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जंबूस्वामीचरित्र, सिद्धान्तविचार, पांडवचरित्र आदि गद्य रचनायें लिखी गईं। बालावबोध संज्ञक रचनायें अनवरत रूप से लिखी जाती रहीं और योगशास्त्र बालावबोध (सं० १५६२) श्रावकप्रतिक्रमण बालावबोध (सं १५६९), उपदेश रत्नकोष बालावबोध (सं० १५७५), दंडक बालावबोध कर्मग्रन्थ बालावबोध, आराधना बालावबोध, षडावश्यक बालावबोध आदि लिखे गये। १. देसाई, पूर्वोक्त, भाग ३, १५८७ २. वही, पृ० १५९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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