Book Title: Hindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Shitikanth Mishr
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 624
________________ मरु-गुर्जर जैन गद्य साहित्य समरचन्द्र-आप सुप्रसिद्ध आचार्य पार्श्वचन्द्र के शिष्य थे। आपने पद्य में श्रेणिकरास स्तुति, पावचन्द्रसूरि, महावीरस्तवन आदि कई रचनायें की हैं जिनका विवरण पद्यखंड में दिया जा चुका है। आपके पिता का नाम भीमाशाह और माता का नाम बालादे था। आपका जन्म सं० १५६० में हुआ। आपको सं० १६०४ में आचार्य पद प्राप्त हुआ। आपका स्वर्गवास सं० १६२६ में हुआ अतः आप १७वीं शताब्दी के प्रथमचरण के लेखक हैं। आपने मरुगुर्जर में कई बालावबोध लिखे हैं, इनमें संस्तारक प्रकीर्णक बालावबोध, षडावश्यक बालावबोध और उत्तराध्ययन बालावबोध प्रसिद्ध गद्य रचनायें हैं। साधुसुन्दरगणि-आपने उक्तिव्यक्तिप्रकरणं की शैली पर अपनी प्रसिद्ध रचना 'उक्तिरत्नाकर' लिखी है । डा० शिवप्रसाद सिंह ने अपने शोधग्रन्थ में इसके अतिरिक्त इस प्रकार की अन्य रचनाओं-'उक्तीयक' और 'औक्तिक पदानि' का भी उल्लेख किया है किन्तु इनके लेखक अज्ञात हैं। ये रचनायें भी १६वीं शताब्दी की बताई गई हैं। इनसे पूर्व रचित 'उक्तिव्यक्तिविवृत्ति की चर्चा पहले की जा चुकी है। संवेगदेवगणि-आप तपागच्छीय भट्टारक रत्नशेखरसूरि के शिष्य थे। आपने सं० १५१३ में पिंडविशुद्धि में शैली पर बालावबोध भाषा टीका की। सं०१५१४ में आपने 'आवश्यकपीठिका बालावबोध' और च उशरण पयन्ना नामक गद्यरचनायें की। इनकी लोकप्रियता इससे प्रमाणित होती है कि इन गद्य कृतियों की अनेक प्रतिलिपियाँ जैन शास्त्रभण्डारों में उपलब्ध हैं। सुन्दरहंस-आप तपागच्छ के आचार्य सुमतिसाधुसूरि के शिष्य थे। आपने सं० १५१८ से सं० १५५१ के मध्य 'पासत्थाविचार' की रचना की होगी। इसके अन्तर्गत पासत्था के बोल तदुपरान्त १०८ अन्य बोल हैं। इनमें लुकामतानुयायियों को चुनौती दी गई है। यह साम्प्रदायिक आग्रह से युक्त रचना है। इसका साम्प्रदायिक खंडन-मंडन की दृष्टि से ही कुछ महत्व होगा, साहित्यिक महत्व नहीं हो सकता। एक बात जरूर है कि प्रारम्भ में किसी भाषा के गद्य में ओज प्रधान शैली और अभिव्यन्जना की तीव्रता ऐसी ही खंडन-मण्डनात्मक रचनाओं से निखरती है। १. देसाई, पूर्वोक्त, भाग ३, पृ० १५८९.९० २. शिवप्रसाद सिंह-सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य, पृ० १२४ ३. देसाई, पूर्वोक्त, भाग ३, खंड पृ० १५८० ४. वही, पृ० १५९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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