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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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इसकी भाषा पर गुजराती का प्रभाव अधिक है । इसमें दूहा, चउपइ, वस्तु - बंध एवं विभिन्न ढालों का प्रयोग किया गया है । कवि ने इसमें अपनी गुरु परम्परा बताते हुए काष्ठासंघ, नंदीतट गच्छ के आ० रामसेन से लेकर विमलसेन, विश्वसेन तक की वंदना की है । रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है
संवत सोलसि श्रावण मास, सुकुलपंचमीदिन उल्हास, कहि विद्याभूषण सूरीसार, रास ए नन्दु कोड वरीस | "
इस रचना का विषय लोकप्रिय है किन्तु विषय स्थापना के लिए तदनुरूप भाषा और काव्यशैली के अभाव में यह एक सामान्य रचना ही बन
की है ।
विद्याधर - आपकी एक ही रचना 'बारभावना' का पता चला है। इसमें कवि ने जैनधर्म के अनुसार आचरणीय बारह भावनाओं का वर्णन किया है । प्रारम्भिक छन्द में प्रथम भावना का वर्णन कवि ने इन शब्दों में किया है :
:
'पहिलीय भावना भावयो अ, अह अनंतता सहूइ जाणयो ओ, गढ़ मढ़ मंदिर भवन गेह, यह आज भला न रहि काल तेह ।' कवि कहता है कि संसार के क्षणभंगुरता की भावना करके मनुष्य को धर्म में चित लगाना चाहिये । अन्त में कवि कहता है:
'सुरनर अपछरा इंद्रजेह, सवि आप पहूतइ न रहइ तेह,
नरय तयंच मानवीय माहि, क्षणि उपजई नई वली वलीय जाइ । भइ विद्याधर भावयो अह भावना बार,
भवियणं भगतिइ सांभल, तु करइ सफलसंसार ।
यह शुद्ध धार्मिक रचना है इसमें संसार की असारता की तरफ पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने की कवि ने चेष्टा की है ।
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विद्यारत्न - आप तपगच्छीय आचार्य हेमविमल सूरि की परम्परा में लावण्यरत्न के शिष्य थे । आपने १६वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में 'मृगापुत्ररास' की रचना की । सं० १६११ की लिखित इसकी प्रति प्राप्त है । इसमें रचना काल नहीं है । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ आगे उद्धृत हैं :
१.
डा० क० च० कासलीवाल - राजस्थान के जैन संत, पृ० २०९-२१० २. श्री मो० द० देसाई - जै० गु० कवि --- भाग ३, पृ० ६४१
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