________________
४९६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास घर हुआ। अमरसिंहसूरि के उपदेश से इन्होंने संयम धारण किया। इसका प्रारम्भि पद्य इस प्रकार है :
'अहे जुहारिस जगत्रय अधिपति, मुनिपति सुमति जिणंद, अहे गायसु रंगि धनागम, आगम गच्छ मुणिंद । श्री हेमरत्न सूरि भगतिहिं, विगतिहिं गुण वर्णवेसु,
गुरु पद पंकज सेविय, जीविय सफल करेसु ।। अन्तिम छन्द देखिये
'इणिपरि सुहगुरु सेवउ, केवउ नहीं भववासि,
दुर्लभ नरभव लाघउ, साधउ सिद्धि उल्हास ।२२।' रचना काव्यत्व की दृष्टि से सामान्य कोटि की है।
विनयभाव-आप आनन्दविमलसूरि के शिष्य थे। आपने गुरु पर आधारित दो रचनायें लिखी हैं (१) आनन्दविमलसूरिस्वाध्याय, (२) आनन्दविमलसूरिसज्झाय। ये दोनों रचनायें ‘ऐतिहासिकजनगुर्जरकाव्य संचय' में क्रमांक १७ और १८ पर प्रकाशित हैं। विजयदानसूरि के शिष्य वासण ने भी 'आनन्दविमलसूरिरास' लिखा है जिसका विवरण दिया जा
चुका है।
विनयभाव की इन रचनाओं से आनन्दविमलसूरि के सम्बन्ध में मुख्य रूप से ये सूचनायें मिलती हैं कि वे सं० १५४७ में ओसवंशीय मेधा की पत्नी माणेकदे की कुक्षि से पैदा हुए थे। उनका बचपन का नाम बोधकुंवर था। उन्होंने सं० १५७० में हेमविमल सूरि से दीक्षा ली और स्वाध्याय, तपश्चर्या और धर्मोपदेश किया। इन्हें सं० १५८२ में हेमविमलसूरि ने सूरिपद दिया और सं० १५८७ में ये आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हए। इन्होंने गुजरात, मालवा, बागड़, राजस्थान आदि प्रान्तों में बिहार किया और अपने धर्मोपदेश द्वारा अनेक साधु बनाये, जनता को धर्म का बोध कराया। कई प्रतिष्ठायें कराई और सं० १५९६ चैत्र सुदि ७ को ९ दिन का अनशन करके अहमदाबाद में शरीर त्याग दिया। इन्ही तथ्यों को इन रचनाओं में पद्य बद्ध कर दिया गया है। ये कृतियाँ सं० १५९६ के आसपास लिखी गई होंगी। इनकी भाषा सामान्य मरुगुर्जर है। काव्यत्व की दृष्टि से ये सामान्य रचनायें हैं। १. प्राचीन फागु संग्रह पृ० ७८ २. जैन ऐतिहासिक काव्य संचय (सं० मुनि जिनविजय) क्रम सं० १८-१९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org