Book Title: Hindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Shitikanth Mishr
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 606
________________ $ मरु-गुर्जर जैन गद्य साहित्य ५८९ १४वीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण की गद्यरचनाओं में ज्ञात लेखक कृत सर्वाधिक प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण कथा रचना है 'कथारत्नाकर'; जिसके लेखक हैं 'नरचन्द्रसूरि' । यह 'वर्णरत्नाकर' के कोटि की रचना है जो १५ तरंगों में विभक्त हैं । इसका रचना काल सं० १३१९ बताया गया है | अतः यह मरुगुर्जर की अद्यावधि ज्ञात कथा कृतियों में सर्वाधिक प्राचीन रचना ठहरती है । इसका विवरण श्री भुवनेश्वर प्रसाद गुरुमंता ने नागरी प्रचारणी पत्रिका (सं० २०२२ अंक - ४ ) में प्रकाशित कराया है । इसके साथ ही उन्होंने इसी कोटि की एक महत्वपूर्ण गद्यकृति 'आभणक रत्नाकर' की भी सूचना दी है । यह औक्तिक पदों का संग्रह होगा, इसलिए भाषास्वरूप के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण रचना होगी। इनके विवरण उक्त पत्रिका से प्राप्त हो सकते हैं, अतः यहाँ सूचना मात्र दी गई है । कथारत्नाकार वर्णनात्मक शैली में लिखित गद्यात्मक कथा कृति है । इसलिए मरुगुर्जर के कथा - साहित्य के इतिहास में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । अगरचन्द नाहटा ने अपने लेख 'प्राचीन काव्यों की रूप परम्परा में ' 'सिलोका' का परिचय दिया है। उनका कथन है कि सिलोका का प्रचलन १३वीं १४वीं शताब्दी से ही हो गया था । जब कोई व्यक्ति अपनी शादी में ससुराल जाता था तो उसके साले सालियाँ उसकी मतिपरीक्षा के लिए एक श्लोक कहकर उससे उसका अर्थ पूछते थे या वैसा ही अन्य श्लोक सुनाने का आग्रह करते थे । इसी श्लोक का यह ठेठ रूप 'सिलोका' है । इलोकों के इस पारस्परिक आदान-प्रदान, टीका और संवाद में प्रयुक्त भाषा के लिखित नमूने १४वीं शताब्दी से ही प्राप्त होने लगते हैं १४वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के एक 'सिलोका' का उदाहरण आगे दिया जा रहा है। ---- 'तप्तं तपः साधुजनाय दत्तं दानं स्मृता पंज नमस्क्रिया च । सतीर्थयात्रा विहिता च तेन पुण्येन लब्धा भवतः स्वसेयम् ।' अहो शालकः ! मइ पूर्विलइ भवि निर्मल बार भेदु तप कीधउ । चारित्रिया तपोधन कि ही भावनापूर्वाकु दान दीधउ । अनइ जिनशासन सार पंच परमेष्ठि नमस्कार स्मस्मउं श्री शत्रुंजय गिरनार सरीखइ तीर्थ जाइ इ । श्री वीतराग पूज्या । वीणि पुण्य करिउ मइताहरी वहिण लाधी । " इनकी भाषा निश्चय ही तत्कालीन बोलचाल की भाषा का प्रामाणिक रूप हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है । अतः भाषा विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । 1 १. अगरचन्द नाहटा - प्राचीन काव्यों की रूप परम्परा - पृ० ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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