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मरु-गुर्जर की निरुक्ति गजलों का विवरण-1 १. जोधपुरनगरवर्णनगजल -हेमकवि सं० १८६६ २. जोधपुरनगरवर्णनगजल -मुनि गुलाब विजय १९०१. ३. जोधपुर नगर वर्णन गजल -महाराज मानसिंह के समय ४. नागर वर्णन गजल
--मनरूप
सं० १८६२ ५. मेड़ता वर्णन गजल -मनरूप
१८६५ ६. सोजत वर्णन गजल -मनरूप
१८३८ ७. बीकानेर वर्णन गजल -लालचंद
- इत्यादि तीन अन्य प्रचलित शैलियों का भी यहीं उल्लेख उचित होगा (१) ख्यात, (२) बात और (३) बच निका, जैसे ढोला मारु, बेलि कृष्ण रुक्मिणी री बात, अचलदास खींची री बात और बचनिका आदि प्रसिद्ध हैं।
इस प्रकार काव्य रूपों की दृष्टि से अपभ्रंश और उससे पोषित मरुगुर्जर साहित्य और भी अधिक सम्पन्न है।
रस--मरुगुर्जर जैन साहित्य में सभी प्रकार के रसों का यथास्थान आस्वाद प्राप्त होता है पर वीर, शृगार, अद्भुत का प्रयोग अधिक किया गया है। ये सभी रस अंग हैं । जैन साहित्य का अंगी रस या प्रधान रस शान्त रस हा है। जैन साहित्य में रसराज का पद श्रंगार के स्थान पर शान्त को प्रदान किया गया है। आत्मा के द्वारा अपने स्वरूप का अनुभव आत्मानंद है और काव्य के रस को 'रसो वैसा' कहकर ब्रह्मानंद-सहोदर का स्थान दिया गया है। जीवात्मा, मल, कषाय, कंचुकादि से बद्ध होने के कारण अपने शुद्ध रूप का साक्षात्कार नहीं कर पाता। इन बन्धनों से मुक्ति की अवस्था का ही नाम शम या निर्वेद है। शम और निर्वेद में थोड़ा अन्तर है। भोग की अपूर्णता तथा उसके व्याघातक स्थितियों के कारण चित्त की अभावात्मक वृत्ति का नाम निर्वेद है । इसीलिए कुछ विद्वान् निर्वेद को नकारात्मक मानकर शान्त रस की स्थिति पर आक्षेप करते हैं किन्तु केवल निर्वेद नहीं बल्कि शम और निर्वेद स्थायी भावों की अभिव्यक्ति से ही शान्तरस की वास्तविक निष्पत्ति हो पाती है। शम को शान्त रस का स्थायी भाव माना जाता है। क्योंकि आत्मा के विश्राम की अवस्था का नाम शम है । यह नकारात्मक अवस्था नहीं है। इस तथ्य को आचार्य जिनसेन ने 'अलंकार चिन्तामणि' में इस प्रकार समझाया है - "विरागत्वा
१. श्री अ० च० नाहटा-राजस्थान का जैन साहित्य पृ० २८३ Jain Education International
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