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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
३०९ (१) एकादश गणधर नमस्कार का प्रथम छंद प्रस्तुत है :
'गौतम गणहर गौतम गणहर पढम संघयण, तित्थंकर वीर जिण पढम सीस सोव्रत समाणउ । प्रहि उठि प्रणामीउ सत्त हत्थ तणु माण जाण उ,
पवर विडोत्तर तापसह प्रतिबोधौ वर तणि ।। 'एकादश गणधर स्तवन' का प्रथम छंद देखिये :
'वीर जिणेसर पय पण मेवि, गणधर कवित करूं संखेवि ।
गणधर इग्यारसिनइं काजि, वद्ध मान जिनशासनि राज ।' स्तवन की कुछ और पंक्तियां देखिये :
'इय समये जत्ति सव्वसत्ति चित्तमत्ति वन्निया, वैशाख सुदि इग्यारसी दिनि वीरनाहई थापिया, ओ सयल गणहर अ इग्यारसि जेअराहइं भाविया,
ते तवन भणसि भावि सुणसि ते लहई सुख संपया।'' उक्त दोनों रचनायें भाषा और शैली की दृष्टि से किसी एक ही कवि की रचनायें मालूम होती है, भक्तिभाव की रचनायें हैं और इनका काव्य की अपेक्षा धार्मिक महत्व अधिक है।
प्राचीन फागु संग्रह में 'पुरुषोत्तम पांच पांडव फाग' भी अज्ञात कवि की रचना के रूप में प्रकाशित है लेकिन श्री मो० द० देसाई ने इसे वीरनन्दन की रचना कहा है। अतः इसका वर्णन वीरनन्दन कवि के साथ किया गया है। इसमें आठ भास हैं और यह प्राचीन फागु पद्धति में लिखा गया है। पाँचों पांडव विवाह के बाद द्रौपदी के साथ हस्तिनापुर लौटे, उस समय नगर खब सजाया गया। कवि कहता है :
'घरि घरि मोतिय चउक भरिय गडिय उछलालिय ।
घरि घरि मंगल कलश ठविय वर वंदुर वालिय। पांचों पांडव वरवेश में सजे थे, उनका वर्णन कवि इस प्रकार करता है :
मृगमद मयवट्ट कुसुमभारु सिरि तिल उसुरंगो।
नयणहिं काजलरेह वयणि तंबोल सुचंगो। १. श्री मो० द० देसाई जै० गु० क० भाग ३ खंड २ १० १४८६-८७ २. वही ३. प्राचीन फागु संग्रह पृ० ४३ ४. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क. भाग ३ १० ४२२
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