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मरु-गुर्जर जैन साहित्य 'अक साधम्मिक वत्सल करइ, ते स्त्री त्रिन्हइ पक्ष ऊधरइ। स्त्रीय तणां छइ असा चरित्र, पग मेलइ तिहां भुइ हुइ पवित्र ।
कवि देपाल स्त्री वर्णवी संखेवि, तुम्ह प्रसन्न माता मरु देवी।। पार्श्वनाथ जीराउल्ला रास में देपाल ने कवि कक्कसूरि की वंदना की है। (हीयाली) हरियाली एक प्रकार का बुझौवल या पहेली है जिसका प्रयोग जैन कवि काफी प्राचीन काल से करते रहे हैं। एक पंक्ति देखिये :____ ' हरियाली जे नर जाणे, मूर्ख कवि देपाल बखाणो।'
इनकी अन्य छोटी रचनायें जैसे 'नवकार प्रबन्ध' और 'मनुष्य भवलाभ' आदि गीत हैं । मनुष्य भवलाभ की दो पंक्तियां प्रस्तुत हैं :
'दान शील तप भावना रे, मन शुद्धि पालेसु,
देपाल भणइ हु सविहुँ भागा, अंक बटाव करेसु। भाषा के सम्बन्ध में श्री देसाई जी का मत है कि इस पर दिल्ली की भाषा का प्रभाव नगण्य है; यह वही भाषा शैली है जिसमें अन्य मरुगुर्जर कवियों की रचनायें लिखी गई थी। हो सकता है कुछ रचनायें गुजरात में लिखी गई हों, उन पर गुजराती का प्रभाव अधिक हो किन्तु इनकी रचनाओं की सामान्य भाषा दिल्ली राजस्थान और गुजरात की भाषाओं के मेल से बनी मरुगुर्जर ही है । गुर्जर प्रभाव के लिए सम्यक्त्व बारबत कुलक की निम्न पंक्तियां अवलोकनीय हैं :
हूँ मूरख मतिहीण, भारी छु सहीय, हूँ नरावा जिमकहूँ तिसुकरुं-नहीय, किम हु करूँ अजाण, जांणू नहीं गियत्थविण, गुरु विण न हुई प्रमाण, जे बोलिउं मझ मति तणू ।३३८॥
इन विवरणों एवं उद्धरणों से यह स्पष्ट होता है कि आप संस्कृत, गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी आदि भाषाओं के अच्छे जानकार थे। वे नाना प्रकार के काव्यरूपों के कुशल प्रयोक्ता थे। विविध छन्द, देशी ढाल, रागरागिनियों का उत्तम उपयोग करने में समर्थ थे। उन्हें अलंकारों के उचित प्रयोग का ज्ञान था। उनमें वे सभी गूण वर्तमान थे जो किसी को उच्चकोटि का कवि बनाने के लिए अपेक्षित हैं। उन्होंने जैन समाज में प्रचलित प्रायः सभी लोक प्रसिद्ध पुरुष एवं नारी चरित्रों पर आधारित १. श्री अ० च, नाहटा-जै० म० गु० कवि, भाग ३ खंड २ पृ० १४८७-८८ २. श्री० मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग ३ पृ० ४५१
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