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१.२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ___ भक्ति--अपभ्रंश और मरुगुर्जर काव्य में जैन कवियों ने 'भक्ति' का पर्याप्त चित्रण किया है । जैन दर्शन के षडावश्यकों में समता के बाद स्तवन (भक्ति) को दूसरा आवश्यक बताया गया है। प्रत्येक साधक का यह कर्त्तव्य है कि वह जैन तीर्थङ्करों की स्तुति करे। यह स्तुति भक्तिमार्ग की जप साधना या नामस्मरण के कोटि की वस्तु है जिसके माध्यम से साधक अपने अहंकार का नाश और सदगुणों के प्रति अनुराग की वृद्धि करता है। हिन्दू परम्परा में जो स्थान ईश्वर के अवतारों का है वही स्थान जैन परम्परा में तीर्थङ्करों का है। दोनों धर्म संस्थापक कहे गये हैं। शक्रस्तव में तीर्थंकर को धर्म का आदि करने वाला, धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाला, धर्म का दाता, धर्म का नेता और धर्म का सारथि कहा गया है।
जैन परम्परा में तीर्थंकर धर्म संस्थापक तो है लेकिन दुष्टों का विनाश ( हिन्दू अवतार की तरह ) उसका कार्य नहीं है क्योंकि ऐसा करने में अहिंसा का सिद्धान्त बाधक है। अतः हिन्दू अवतारों की तरह सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का विनाश उसका कार्य नहीं, यह उसके निवृत्तिमार्ग के अनुकूल नहीं है । वह मात्र उपदेश देता है। तीर्थंकर भी अवतारों की तरह उपास्य हैं लेकिन भक्त उनसे उपासना के बदले कुछ नहीं चाहता । वह उनके गुणों का स्मरण करके अपने दुर्गुणों से मुक्त होता है । भक्त आत्मा प्रभ की भक्ति द्वारा अपने आत्म स्वरूप को पहचान लेता है । जैन तीर्थंकर स्वयम् निष्क्रिय रहते हुए भक्त पर अपने उद्धार का भार देकर उसे सत्कर्म के लिए सक्रिय करता है न कि अवतार की तरह भक्त के समर्पण मात्र से उस पर कृपालु हो उसकी पूर्ण रक्षा का आश्वासन दे उसे निष्क्रिय बना देता है । स्तुति द्वारा भक्त अपने आराध्य तीर्थंकर से किसी प्रकार के प्रतिफल की अपेक्षा नहीं रखता। "जैन और बौद्ध मान्यता यह है कि व्यक्ति अपने ही प्रयत्नों से आध्यात्मिक उत्थान या पतन कर सकता है। स्वयम् पाप से मुक्त होने का प्रयत्न न करके केवल भगवान् से मुक्ति
१. नमोत्थुण अरिहंताणं भगवंताणं । आइगर.णं तित्थयराणं, सयं सुबुद्धाणं । धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनाथयाणं, धर्मसारहीणं, धम्मवर चाउरंतः' चक्कवहीणं ।' सामयिक सूत्र-शस्तव ।
'तीर्थकर बुद्ध और अवतार की अवधारणः तुलनात्मक अध्ययन पृ० २६७
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