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मर-गुर्जर की निरुक्ति
१०३ की प्रार्थना करना जैन विचारणा की दृष्टि से सर्वथा निरर्थक है।''1 जैन विचारकों की स्पष्ट मान्यता है कि केवल तीर्थंकरों की स्तुति करने से मोक्ष एवं समाधि की प्राप्ति नहीं होती जब तक मनुष्य स्वयम् उसके लिए प्रयास न करे । जैन दर्शन में भक्ति के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करते हए देवचन्द्र जी लिखते हैं :
'अज कुलगत केसरी लहेरे, निज पद सिंह निहाल ।
तिम प्रभु भक्ति भवी लहेरे, आतम शक्ति सँभाल ।' जिस प्रकार अजकुल में पालित सिंह शावक सिंह के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है उसी प्रकार साधक तीर्थंकरों के गण कीर्तन-स्तवन के द्वारा निज में जिनत्व की शोध कर लेता है । स्तुति साधक की अंतश्चेतना को जाग्रत करती है। उसके सामने साधना का आदर्श प्रस्तुत करती है। प्रयत्न स्वयम् साधक को करना पड़ता है। जहाँ तक कर्म सिद्धान्त का प्रश्न है कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि वीतराग भगवान् में किया गया राग बन्ध का कारण नहीं होता। योगीन्दु भी कहते हैं कि पर के प्रति राग बन्ध का कारण होता है किन्तु 'स्व' के प्रति नहीं। वीतरागी जिन 'पर' नहीं 'स्व' आत्मा ही है। यहीं वैष्णव भक्ति और जैन भक्ति में अन्तर आता है। योगीन्दु ने परमात्मप्रकाश में भगवान्, सिद्ध और आत्मा की एकरूपता दिखाई है। निष्काम अनुराग बन्ध का कारण नहीं होता। इसलिए राग तो किया जा सकता है किन्तु जैसा पहले कहा गया उस राग के बदले भक्त अपने प्रभु से दया, अनुग्रह, प्रेम कुछ नहीं चाहता । आचार्य हेमचन्द ने कहा है कि श्रद्धा ही भक्ति है जब कि प्रसिद्ध हिन्दी समालोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल श्रद्धा और भक्ति में अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि 'भक्ति श्रद्धा और प्रेम का योग है।' भक्त भगवान् से श्रद्धा भक्ति के बदले अनुकम्पा, कृपा या अनुग्रह चाहता है। भक्ति प्रेम रूपा है। भक्ति के नाते भगवान् भक्त पर कृपा करते हैं, शरण में लेते हैं, माया से मुक्त करते हैं। भगवान् से प्रीति करने के लिए नवधा भक्ति का निरूपण किया गया है । जैन ज्ञान प्रधान एवं निवृत्तिमूलक धर्म है फिर भी भक्ति से उसका सम्बन्ध है। श्रद्धा से सम्यक् दर्शन और सम्यक् दर्शन से मोक्ष की प्राप्ति जैनाचार्यों को स्वीकार्य है अतः मुक्ति के लिए जैन दर्शन में
१. डॉ० सागरमल जैन 'जैन, बुद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' पृ० ३९४
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