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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास होता है और मानव हृदय में प्रेम एवं शृङ्गार प्रस्फुटित होता है । मदनोत्सव फागु काव्यों का प्रारम्भिक विषय रहा है। जैन फागु का भी पर्यवसान शम में ही होता है। उदाहरणार्थ जिनपद्म कृत स्थूलिभद्रफागु १४वीं शताब्दी की फागु संज्ञक प्राचीन रचनाओं में एक है। नेमिनाथफागु ( राजशेखर सूरि कृत ), जंबूस्यानीफागु आदि रवनायें प्राचीनफागु संग्रह में संकलित हैं। ऋतुओं से सम्बन्धित साहित्य की विधाओं में फाग के अलावा धमाल, वसंत, षट्ऋतु वर्णन, बारहमासा, होली आदि काफी लोकप्रिय लोक काव्य रूप हैं । इनमें से बारहमासा का वर्णन किया जा रहा है।
बारहमापा-इस में वर्ष के बारहमासों का वर्णन किया जाता है। नेमिनाथ-राजीमती सम्बन्धी लोकप्रिय विषय वस्तु पर आधारित अनेक रचनाओं में बारहमासों का सुन्दर स्वरूप दिखाई पड़ता है। विनयचन्द्र कृत नेमिनाथबारहमासा उल्लेखनीय है । श्री नाहटा जी का कथन है कि अकेले उनके संग्रह में शताधिक बारहमासे हैं जिनमें से तीन चौथाई का सम्बन्ध नेमिनाथ-राजमती के विरह-वर्णन से है ।
चौमासा--प्रबन्ध काव्यों में वर्षाऋतु का विशेष वर्णन मिलता है इस पर स्वतन्त्र ग्रन्थ संभवतः नहीं है। इसी प्रकार 'सातवार में सप्ताह के सातवारों का वर्णन संयोग और वियोग के प्रसंग में भिन्न-भिन्न प्रकार से मिलता है।
प्रबन्ध काव्य रूगों को भी कई प्रकार से विभाजित किया जा सकता है, जैसे जिज्ञासामूलक काव्य रूप के अन्तर्गत उखांडा, कट, उलटवांसी, अन्तरालाप, मुकरी, प्रहेलिका, हीयाली आदि प्रचलित हैं । उखांडा शब्द संकृत के उपाख्यानक से उक्खाणउ और उखांडा बना होगा। इस तरह के प्राचीन सुभाषितों का संग्रह मेरुतुंग कृत प्रबन्धचिन्तामणि, सोमप्रभ कृत कुमारपालप्रतिबोध और सारंगधरपद्धति आदि में मिलता है।
कूट या उलटवास--इसका प्रथम प्रयोग बौद्धसिद्धों के चयपिदों में मिलता है। कबीर की उलटवासियाँ भी प्रसिद्ध हैं। कहा जाता कि सूरदास आदि में प्राप्त कट पदों की परम्परा महाभारत से आई है, अतः यह अति प्राचीन काव्य रूप ठहरता है । गुजराती में जब एक पक्ष अपनी बात का उत्तर देने की चुनौती दूसरे पक्ष को देता है तो उसे कोचहड़ो कहा जाता
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