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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
८३ अपभ्रंश में ही बहुत काल तक रचनायें लिखते रहे। अधिकांश उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य जैन साहित्यकारों द्वारा ही सृजित है।
चरित --अपभ्रंश की दूसरी बडी देन है : काव्य में जनसामान्य को चरित नायक का स्थान देना; संस्कृत साहित्य में जनसाधारण को काव्य का नायक नहीं बनाया गया और न सामान्य विषयों को काव्य का विषयवस्तु बनाया गया। जैन अपभ्रंश साहित्य में ही नहीं अपितु काव्य का लोक जीवन से अविच्छिन्न सम्बन्ध जैनों ने प्राकृत साहित्य में ही जोड़ दिया था। अपभ्रंश में आकर वह और अधिक घनिष्ट हआ। व्रत-नियम पालन करने वाला आचारवान् श्रावक या मध्यम वर्गीय कोई साधारण मनुष्य अपभ्रंश काव्य का चरित नायक बनने लगा। इस प्रकार काव्य को लोक जीवन से सम्बद्ध करने की अपभ्रंश साहित्य की महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति मरुगुर्जर को विरासत में प्राप्त हुई और मरुगुर्जर के जैन कवियों ने इसका बड़े प्रभावशाली ढंग से अपनी कृतियों में उपयोग किया।
कथावस्तु-अपभ्रंश के प्रबन्ध साहित्य में महापुराण, पुराण, चरितकाव्य, कथाग्रन्थ आदि का प्रचलन अधिक था। कथातत्व पौराणिक विषयों पर आधारित था। चरित साहित्य में जैनाचार्यों ने काव्य की कथावस्तु का चयन प्रायः जैन पुराणों से किया है। कहीं हिन्दू पुराणों से यदि कथा ली गई है तो उसे भी अपने धार्मिक दृष्टिकोण से नबीन रूप दे दिया गया है। इस प्रकार के चरित्रों और कथाओं पर आधारित सैकड़ों काव्य कृतियाँ मरुगुर्जर में लिखी गईं जिनपर स्पष्ट ही अपभ्रंश का प्रभाव लक्षित होता है। इनका विषय प्रायः कोई तीर्थङ्कर, शलाकापुरुष या कोई व्रत-उपवास आदि का माहात्म्य अथवा अनुष्ठान आदि रहा है। 'सुदंसणचरिउ' 'पउमसिरिचरिउ' आदि प्रेमाख्यानों का भी परवर्ती मरुगुर्जर साहित्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इन जैन काव्यों में शृंगार रस, नायक-नायिका भेद, बारहमासा, नखशिख वर्णन इत्यादि परवर्ती काव्य-प्रवृत्तियों का आदि रूप दिखाई पड़ता है।
संस्कृत में काव्य रचना सर्ग बद्ध होती थी। प्रत्येक सर्ग में भिन्न-भिन्न छन्द योजना और सर्ग के अन्त में छन्द बदलने की प्रथा प्रचलित थी किन्तु अपभ्रंश में काव्य संधियों में विभक्त किया जाने लगा। प्रत्येक संधि कई कड़वकों से मिलकर बनती थी। कड़वक की समाप्ति धत्ता से होती है। इन कड़वकों में पज्झटिका, अलिल्लह आदि छन्दों का प्रयोग होता है । साहित्यदर्पणकार ने लिखा है, 'अपभ्रंश निबद्ध ऽस्मिन् सर्गाः कुडवकाभिधाः।
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