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संभव था। कुछ गुजराती विद्वान् हेमचन्द्र की अपभ्रंश को शौरसेनी अपभ्रंश न कहकर गौर्जर अपभ्रंश कहना अधिक उचित समझते हैं। इस पर सम्यक् विचार प्रस्तुत पुस्तक के अपभ्रंश प्रकरण में किया गया है।
पुस्तक के शीर्षक देखने से विदित होता है कि यह दो भागों में विभक्त सा है। एक हैं - हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि का रूप - - इसमें भारतीय आर्यभाषाओं का क्रमिक विकास दिखाया गया है जिसमें वैदिक, लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का भाषा विषयक निर्देश है। उसके बाद अपभ्रंश और देशी पर विचार विमर्श किया गया है। इसमें मेरी यह धारणा रही है कि देशी शब्द की सम्यक् व्याख्या करके, उसका निरीक्षण और परीक्षण करके देशी नाममाला के शब्दों से हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों
प्रयुक्त देशी शब्दों की तुलना की जाये। इसके बाद जिन-जिन प्राकृत वैयाकरणों ने अपभ्रंश का व्याकरण लिखा है, उनका मूल्यांकन किया है। पुस्तक का दूसरा भाग है-: -भाषा वैज्ञानिक अध्ययन - इसमें अपभ्रंश व्याकरण का सांगोपांग अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इस तरह ये दोनों विभक्त होते हुये भी अविभक्त हैं। एक दूसरे के पूरक हैं।
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हेमचन्द्र के अपभ्रंश पर विचार करते समय मैंने अन्य प्राकृत वैयाकरणों के अपभ्रंश सूत्रों का भी सहारा लिया है। षडभाषा चन्द्रिका में मौलिकता का अभाव होते हुये भी लेखक ने संस्कृत सिद्धान्त कौमुदी की तरह विषय विभाजन किया है। इससे विषय वस्तु निर्देश करने में सहायता मिलती है। लेखक ने हेमचन्द्र की तरह अपभ्रंश दोहों का उदाहरण नहीं दिया है । अतः हेमचन्द्र के अपभ्रंश व्याकरण की तरह मौलिकता एवं परिपूर्णता अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती । शब्दों पर विचार करते समय मैंने ऐतिहासिक विकास भी दिखाया है। अपभ्रंश शब्दों का तुलनात्मक विवेचन जहाँ संस्कृत एवं प्राकृत से किया गया है वहाँ अपभ्रंश से हिन्दी शब्दों का क्रमिक विकास भी दिखलाया गया है। अपभ्रंश साहित्य से भी उदाहरण लिये गये हैं। इससे अपभ्रंश व्याकरण की परिपूर्णता लाने का प्रयत्न किया गया है। हेमचन्द्र ने जिन अपभ्रंश दोहों का उदाहरण दिया है वे अधिकांशतः पश्चिम अपभ्रंश साहित्य की रचनायें हैं। मैंने यत्र तत्र पूर्वी अपभ्रंश में रचित दोहाकोश के शब्दों का उद्धरण भी लिया है।