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कि परवर्ती लेखक मार्कण्डेय तथा अन्य ग्रन्थकारों ने किया है। सावधानी से हेमचन्द्र के नियमों का अध्ययन करने से पता चलता है कि इनकी अपभ्रंश व्याकरण में कई उपबोलियों का समन्वय है। इस बात की पुष्टि अपभ्रंश व्याकरण के प्रथम सूत्र 329 से होती है--
प्रायो ग्रहणात् यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते तस्यापि क्वचित्प्राकृतवत् शौरसेनीवच्च कार्यं भवति। . उदाहरणस्वरूप प्राकृत और अपभ्रंश में ऋ की जगह, अ, आ, इ, ए और ओ परिवर्तन होता था, कभी कभी ऋ की भी रक्षा की जाती थी--तृणु, सुकृदु, 341, 394, और 448-- गृहन्ति, गृहणेप्पिणु । हेमचन्द्र ने अपभ्रंश में हर नियम को पूर्ण व्यवस्थित नहीं माना है। कभी-कभी अपभ्रंश में अनावश्यक र का आगम भी हो जाता है--8/4/399; ब्रासु प्रयोग भी देखा जाता है जो कि व्यास शब्द की जगह प्रयुक्त हुआ है। यह किसी बोली का संकेत करता है। संभवतः यह पैशाची बोली का रूप था। 8/4/360-g, त्रं, 8/4/327--. तुध, 8/4/393--प्रस्सदि, 8/4/391--ब्रोप्पिणु, ब्रोप्पि और कभी कभी ब्रासु की जगह ऋ भी लिखा जाता था। हेमचन्द्र ने जो इस प्रकार के विधान किए हैं उनसे प्रतीत होता है कि उन्होंने दूसरी बोलियों के शब्दों का विधान किया है। उनके सूत्र-अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क-ख-त-थ-प-फां-ग-घ-द-ध-ब-भाः (8/4/396) के अनुसार अपभ्रंश भाषा में क, ख, त, थ, प, फ, क्रमशः ग, घ, द, ध, ब और भ में बहुधा बदल जाता है। नियम 8/4/446 भी जिसमें कहा गया है कि अपभ्रंश के अधिकांश नियम शौरसेनी के समान ही हैं, वे अपभ्रंश के अन्य नियमों के विरुद्ध हैं। पूर्वोक्त नियम अपभ्रंश के जिन तत्वों को बतातें हैं वे उनके अन्य सूत्रों से मेल नहीं खाते।
___ हेमचन्द्र की प्राकृत भाषाओं के साथ उनकी कुछ विशेषताओं का अवलोकन करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि वे परस्पर कभी इतनी विरुद्ध प्रतीत होती हैं कि एक भाषा में उनकी उपस्थिति संभव प्रतीत नहीं होती। पिशेल महोदय पूर्वोक्त विशेषताओं को पैशाची के अंतर्गत मानते हैं। हेमचन्द्र ने कुछ सामान्य विशिष्टताओं के साथ-साथ कुछ क्षेत्रीय गुणों को भी अपना लिया है। उन्होंने विकल्प करके अपभ्रंश में प्राकृत के बहुत से रूपों को ग्रहीत किया है। अपभ्रंश के उद्धृत कुछ दोहों में वस्तुतः प्राकृत की कुछ विशेषताओं को भी अपवाद रूप से सम्मिलित कर लिया है; उदाहरण स्वरूप सूत्र 8/4/