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447 में लिखा है कि प्राकृतादि भाषा लक्षणों का व्यत्यय अपभ्रंश में भी होता है जैसे मागधी में तिष्ठ का चिष्ठ होता है, वैसे ही प्राकृत, पैशाची और शौरसेनी में भी होता है। जैसे अपभ्रंश में विकल्प करके रेफ का निम्न भाग लुप्त होता है वैसे ही मागधी में भी होता है-शद-माणुश मंश-भालके कुम्भ शहश्र वशाहे शंचिदे इत्याद्यन्यदपि द्रष्टव्यम् । मार्कण्डेय ने भी थोड़े थोड़े भेद के साथ अपभ्रंश भाषा के तीन भेद किए हैं--(1) नागर, (2) वाचड़ और (3) उपनागर। इस भेद को क्रमदीश्वर ने भी स्वीकार किया है। मुख्य अपभ्रंश नागर है। मार्कण्डेय के अनुसार पिंगल की भाषा नागर है। वाचड़ नागर अपभ्रंश से निकली हुई बताई गई है जो कि मार्कण्डेय के अनुसार सिंध देश की बोली है-सिन्धुदेशोद्भवो वाचड़ोऽपभ्रंशः । इसके विशेष लक्षणों में से मार्कण्डेय मे दो बताए हैं-च और ज के आगे इसमें य लगाया जाना और ष तथा स का श में बदल जाना । ध्वनि के वे नियम जो मागधी के व्यवहार में लाए जाते थे और जिन्हें पृथ्वीधर ने सकार की भाषा ध्वनि के नियम बताए हैं, अपभ्रंश में भी लागू बताए जाते हैं। इसके अलावा आरम्भ के न और द की जगह ट और ड का हो जाना एवं भृत्य शब्दों को छोड़कर झकार वर्ण को जैसे तैसे रहने देना-इसके विशेष लक्षण हैं। नागर और वाचड़ भाषाओं के मिश्रण से उपनागर निकलती है। 'शाक्की' या 'शक्की' को भी अपभ्रंश भाषा में सम्मिलित किया गया है जिसे मार्कण्डेय संस्कृत और शौरसेनी का मिश्रण समझते हैं। यह एक प्रकार की विभाषा मानी गई है। पुरुषोत्तम ने उपनागर की क्षेत्रीय बोलियों का भी उल्लेख किया है; जैसे वैदर्भी, लाटी, औड्री, कैकेयी, गौड़ी और कुछ प्रदेश की बोलियाँ जैसे टक्क, बरार, कुंतल, लाटी; औड्री, पांड्य, सिंहल आदि। इस प्रकार अपभ्रंश भाषा की बोलियाँ सिन्ध से लेकर बंगाल तक बोली जाती रही होंगी। हेमचन्द्र ने मुख्य उपबोलियों का उल्लेख न करके एक ही प्रकार की अपभ्रंश के अंतर्गत सबका समन्वय करने का प्रयत्न किया है।
उपर्युक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि का सूक्ष्म अन्वेषण करने पर हम देखते हैं कि हेमचन्द्र की अपभ्रंश शौरसेनी का प्रतिनिधित्व करती है। यह एक समय आधुनिक हिन्दी की तरह भारत में सर्वत्र साहित्यिक भाषा थी। पूर्वी अपभ्रंश के बहुत से रूप यद्यपि इनके नियमों के अन्तर्गत नहीं आते तथापि यही एकमात्र आदर्श व्याकरण है जो सबका प्रतिनिधित्व करता है। उस समय छपाई के अभाव में इतना ही