Book Title: Gyan Vinod
Author(s): Kanakvimal Muni
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१०] जे कर्म वैरी अमने बहु पीडनारा, ते कर्मथी प्रभु तमेज मुकावनारा; संसारसागरथकी तमे तारनारा, श्री धर्मनाथ पद शाश्वत आपनारा ॥ १७ ॥ श्री विश्वसेन नृपनंदन दीव्य कान्ति, माता सुभव्य अचिरा तस पुत्र शान्ति; श्री मेघना भव विषे सुर एक आवी, पारेव सिंचनकनुं स्वरूपा बनावी ॥ १८ ॥ पारेवने अभय जीवितदान .आप्यु, पोतात' अति सुकोमल मांस काप्युं: तेवा महा-अभयदानथी गर्भवासे, मारी उपद्रव भयंकर सर्व नासे ॥ १९ ॥ श्री तीर्थनायक थया वली चक्रवर्ती, बन्ने लही पदवीओ भव एकवर्ती; जे सार्वभौम पद पंचम भोगवीने, ते सोलमा जिनतणा. चरणे नमीने ॥ २० ॥ चौराशी लक्ष गज अश्व रथे करीने, छन्नु करोड जन लश्कर विस्तरीने तेवी छते अति समृद्धि तजी क्षणिके, श्री कुंथुनाथ जिन चक्री थया विवेके ॥ २१ ॥ रत्नो चतुर्दश निधान उमंगकारी, बत्रीस बद्ध नित नाटक थाय भारी; For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83