Book Title: Gyan Vinod
Author(s): Kanakvimal Muni
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala

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Page 17
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ६५ ] आयुर्गले न मुज पापमति गलाय, ने नष्ट यौवन न तो विषयाश जाय; यत्नो करूं अगदमां न सुहाय धर्म, स्वामिन्! विमोहमति ए मुज दुष्ट कर्म ॥ १६ ॥ मानुं न पुण्य परलोक न. जीव पाप, दुष्टोतणां वयण सांभलतां अमाप; कैवल्य रूप सविता जिन विद्यमान, धिक्कार मृढ मुजने कुमतिप्रधान ॥ १७ ॥ श्री देव ने गुरुतणी न करी सुसेवा, संपूर्ण श्राद्ध यति धर्म सुमर्म लेवा; पापी नृजन्म न जप्या जिनना सुजाप, तेथी थया ज वनमां सबला विलाप ।। १८ ॥ चितामणि सुरतरु अछता जणाय, इच्छा तथापि जिन त्यां मम नित्य धाय; साक्षात् अपूर्व सुखदायक धर्म सार, लागे न चित्त मुज त्यां समतावतार १ ॥ १९ ॥ सद्भोग रोग सम में जिनजी ! न जाण्या, वित्तागमे मरण आगम ना पिछाण्या; कारानिवास सम नारक ना विचारी, कामांध में परम बंधनरूप नारी ॥ २० ॥ सद्वत्तथी सुजनना दिलमां न भाव्यो, साधी परोपकृति ना यश में कमाव्यो; For Private And Personal Use Only

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