Book Title: Gyan Vinod
Author(s): Kanakvimal Muni
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१३] क्रोधाग्निथी अति निरंतर छु बळेलो, ने दुष्ट लोभ अहिथी पण छ दशेलोः ग्रस्यो महाजगरे मुजने ज एबुं, बांधेल छं कपटथी केम नाथ से ? ।। ५ ।। कयु न पूर्वभवमां हितकार्य क्यारे, तेथी अहिं सुख मळ्यु नहि लेश मारे; हे नाथ ! जो इह भवे नव पुण्य थाये, मानुष जन्म भवपूरण काज जाये ॥ ६ ॥ आनंददायी निरखी मुख चन्द सार, मारं अरे ! मन नथी द्रवतुं उदार जेथी शीलाघटित ए मुज चित्त भासे, तेथी कठोर दिसतुं न कदा विकासे ॥ ७॥ संसारमां बहु भमी तुजथी उदार, पाम्यो त्रिरत्न अति दुर्लभ तारनार; निद्रा प्रमाद करतां प्रभु हुँ ज हार्यो, पोकार क्या जइ करुं भव में वधार्यों ॥ ८॥ वैराग्य रंग परवंचन काज धारूं, धर्मोपदेश जनरंजनमां वधारूं; विद्या विवाद करवा मम छे प्रयास, हा! केटलं ज मम हास्य करुं प्रकाश ? ॥९॥ निंदा पराइ करतां मुख९ सदोष, अन्यांगना निरखतां मुज नेत्र दोष; For Private And Personal Use Only

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