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[ १४ ]
चिंती विरूप परतुं मन क्लिष्ट कीधं, मारं थशे ज किम फोगट पापली ? ॥ १० ॥ कामांधता ज मुज आतमने सतावे, वांछी घणुं विषयने कलुषी बनावे; लज्जाथकी ज प्रभु में तुमने प्रकाश्यु, ते ज्ञान केवलथकी स्वयमेव भास्युं ॥ ११ ॥ लोप्यो कुमंत्रथकी में परमेष्ठी मंत्र, वाणी हणी कुमत शास्त्रथकी स्वतंत्र; संगे कुदेव हणवा मथतो स्वकर्म, हे देव ! ए सकल तो मम बुद्धि भर्म ॥ १२ ॥ प्रत्यक्ष दृष्टिगत श्री जगदीश त्यागी, मारी विमूढ मति अंतरमांहि जागी; वक्षोज नाभि नयनो रमणी विलास, देखी कटितट मने प्रगट्यो उल्लास ।। १३ ॥ जोतां मृगाक्षि मुख जे उपनो अनंग, लाग्यो निजांतर विषे लव रागरंग; सिद्धांत सागर विषे करतां ज स्नान, धोतां गयो न जगतारक शुं निदान? ॥ १४ ॥ ना चारु अंग गुणराजिन जे उदार, विज्ञान निर्मल विलास न कोई सार; शोभा प्रभाव प्रभुता लव ना जणाय, तोये अहंव मनमां उभराइ जाये ॥१५॥
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