Book Title: Gyan Vinod
Author(s): Kanakvimal Muni
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala
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[८] छे श्वास अंबुज सुगंध सदा प्रमाणे, आहार ने तुम निहार न कोई जाणे; ए चार छे अतिशयो प्रभु जन्म साथे, वंदं हमेश अभिनंदन जोडी हाथे ॥ ६॥ भूमंडले विहरता जिनराज ज्यारे, कांटा अधोमुख थई रज शुद्ध त्यारे; जे एक जोजन सुधी शुभ वात सुद्धि, एवा नमुं सुमतिनाथ सदा सुबुद्धि ॥ ७ ॥ वृष्टि करे सुरवरो अति सूक्ष्म धारी, जानु प्रमाण विरचे कुसुमो श्रीकारी; शब्दो मनोहर सुणी शुभ श्रोत्रमांहि, श्री पद्मनाथ प्रभुने प्रणमुं उच्छांहि ॥ ८ ॥ सेवा करे युगल यक्ष सुहंकरो ने, विजे धरी कर विषे शुभ चामरोने; वाणी सुणे सरस जोयण एक सारी, वं, सुपार्श्व पुरुषोत्तम प्रीतिकारी ॥९॥ जल्पे जिनेन्द्र मुख मागधी अर्ध भाषा, देवो नरो तिरिगणो समजे स्वभाषा; आर्यो अनार्य सबला जन शान्ति पामे, चंद्रप्रभु चरण लंछन चन्द नामे ॥ १० ॥ वैरी विरोध सघला जन त्यां विसारे, मिथ्यात्वियो विनयी वाक्य मुखे उच्चारे;
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