Book Title: Gyan Vinod
Author(s): Kanakvimal Muni
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala
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वादी कदी अविनयी थई वाद मांडे, देखी जिनेश सुविधि जन गर्व छांडे ॥। ११ ॥ जे देशमां विचरता जिनराज ज्यारे, भीति भयंकर नहि लवलेश त्यारे; ईति उपद्रव दुकाल ते दूर भाजे, नित्ये करूं नमन शीतलनाथ आजे ।। १२ ॥ छाया करे तरु अशोक सदैव सारी, वृक्षो सुगंध शुभ शीतल श्रेयकारी; पच्चीस तोयण लगे नहि आधि-व्याधि, श्रेयांसनाथ तुम सेवथकी समाधि ॥ १३ ॥ स्वप्नो चतुर्दश लहे जिनराज माता, मातंग ने वृषभ सिंह सुलक्ष्मी दाता; निर्धूम अनि शुभ छेक्ट देखीने ते, श्री वासुपूज्य प्रभुता शुभ स्वप्नथी ते ॥ १४ ॥ जे प्रातिहार्य शुभ आठ अशोक वृक्षे, वृष्टि करे कुसुमथी सुरनाद दक्षे; बे चामरो शुभ सुखासन भास्करो ते, छे छत्र हे विमलनाथ ! सुदुंदुभी ते ॥ १५ ॥ संस्थान छे सम सदा चतुरस्र तारुं, संघेण वज्ररूपभादि दीपावनारुं; अज्ञान क्रोध मद मोह हर्या तमोए, एवा अनंत प्रभुने नमी अमोए ।। १६ ।
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