Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 13
________________ में अनंत अणु हैं । इन अणुओं में भी प्रत्येक के अनंत भाव हैं ( भावसार्वकालिक अवस्थाएं) इस प्रकार सभी जीवों-अजीवों के अनन्त भाव हैं । सर्वज्ञ श्री महावीर प्रभु यह सब प्रत्यक्ष देखते और जानते हैं । ऐसे सूक्ष्म कर्म के विलक्षण स्वरूप और शुद्ध अरूपी आत्मा का स्वरूप तथा सूक्ष्म कर्म से आवृत अरूपी जीव का विचित्र मलिन स्वरूप जैसा केवलज्ञानियों ने देखा वैसा जिसके चित्त में जच जाय वह सचमुच इन केवलज्ञानी जिनेन्द्र देव की आज्ञासेवा में सच्चा रसिक बन सकता है । कवि का कचन उचित ही है : 'केवली - निरखित सूक्ष्म अरूपी, ते जेहने चित्त वसियो रे, जिन उत्तम पद पद्मनी सेवा, करवामां घणूं रसियो रे ।' श्री महावीर प्रभु अपापा नगरी के महासेन वन में पधारे । देवताओं ने रजत, स्वर्ण और रत्नमय तीन गढ़युक्त समवसरण की रचना की । देव, मानव एवं तिर्यंच न आये । इन्द्र प्रभु से देशना देने के लिए प्रार्थना करते हैं -- "सुरपति आया वंदनकाज, भगते भराणा रे हो; करे जिन पूजना रे । जिनजी तूं भवजल तार, प्रभुजी तूं पार उतार, सरस सुधा - शीरे हो, देई अम देशना रे कल्पना करें इस दृश्य की ! भावपूर्वक कल्पना करके मानो हम उस स्थल पर पहुँच गये हैं, और यह दृश्य, ये देवाधिदेव, और यह देशना देखकर सुनकर आनन्द अनुमोदन के महासागर में स्नान कर रहे हैं। ऐसा भाव ह्रदय मे स्फुरित हो तो साक्षात् जैसा लाभ हो; अपूर्व कर्म निर्जरा हो तथा आत्मविशुद्धि हो । " ११ ब्राह्मण - भावी गणधर :- इस अपापा में सोमिल नामक एक धनी ब्राह्मण यज्ञ करवाता था । इसमें उसने वेद शास्त्र के पंडित, चौदह विद्या के निष्णात ऐसे मुख्य ११ ब्राह्मणों को आमंत्रित किया था । इनमें प्रत्येक के साथ सैंकडों विद्यार्थियों का परिवार था । ग्यारह में से प्रत्येक अपने आप को सर्वज्ञ मानता था, परन्तु कमी यह थी कि वेदों के अन्दर विरुद्ध दिखाई देने वाले वचनों से प्रत्येक को भिन्न २ तत्त्वों पर संदेह होता था । फिर भी स्वयं को सर्वज्ञ मानने की मूर्खता किस आधार पर ? भारी परिश्रम से विद्योपार्जन किया, अनेक शास्त्रों में विजय प्राप्ति की, इससे गहन आत्मविश्वास था, और सर्वज्ञ शब्द का बारीक व्युत्पत्ति- अर्थ उनके ध्यान में नहीं था अथवा उसका मोटा मोटा अर्थ जानते थे, इसीलिये न ? Jain Education International ÷२÷ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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