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ऐसी क्रियाओं में प्रवर्तमान रहते हैं । आपने खेती का दृष्टांत दिया उसके आधार पर भी दानादि का दृश्य फल मानना चाहिये । दृश्य फल जहाँ हो वहाँ अदृश्य फल की कल्पना क्यों ? भोजन का दृश्य फल तृप्ति है, या कृषि का दृश्य फल फसल है, तो अदृश्य फल कहां मानने में आता है ?
उत्तर - प्रत्येक क्रिया का दृश्य फल तो कदाचित् न भी हो, फिर भी अदृश्य फल तो होता ही है । अतः दृश्य फल के साथ अदृश्य फल का भी होना मानना चाहिए । हिंसादि क्रियाओं के मांस-प्राप्ति आदि दृश्य फल भले हों, फिर भी इनका अदृश्य फल पाप मानना ही चाहिए । अन्यथा इस संसार में जीव अनंत काल से क्यों भटकते रहते हैं ? हिंसादि अशुभ क्रिया करने वाले बहुत है अतः दुःखी और संसार में भटकने वाले भी बहुत; इसके विपरीत दानादि शुभ क्रिया करने वाले थोड़े !
और सुखी तथा मोक्ष प्राप्त करने वाले भी थोडे ! इस पर शुभाशुभ क्रिया का सुखदु:ख के साथ मेल मिलता है कि शुभ क्रिया से सुख, व अशुभ क्रिया से दुःख, किन्तु यह सोच की कर्मरूपी सांकल से ही बन सकता है ।
प्रश्न - दानादि क्रियाएं तो पण्य की अभिलाषा से होती हैं अतः इनका फल पुण्य भले मिले, परन्तु हिंसादि क्रिया करने वालों को कहां पाप की यानी अशुभ कर्म-लाभ की अभिलाषा होती है ? फिर उसे ऐसा फल क्यों मिले ? ।
उत्तर - फलजनन में अभिलाषा का नियम नहीं कि यह हो तभी फल मिले । खेती में बिना इच्छा के अनजान में भी कहीं बीज पड़ गए हों तो उनमें से फसल पैदा होती ही है । अतः नियम इतना ही कि अभिलाषा हो या न हो, परन्तु कारण सामग्री जहां हो वहां कार्य अवश्य होता है। व्यवहार में स्पष्ट दिखाई देता है कि आशंसा-आकांक्षा-विहीन कृत सेवा ऊँचा फल देती है; तो अशुभ कर्म की इच्छा न होने पर भी हिंसादि क्रिया ये देती ही है, ऐसा क्यों न माना जाय ?
शुभ-अशुभ क्रिया का अदृश्य फल ही न हो तो सभी जीवों को जीवन का अन्त होने पर मोक्ष ही मिल जाय । क्योंकि जब अदृश्य फल कर्म है ही नहीं, तब इस जीवन के बाद कर्म बिना जीवों का भावी विचित्र संसार किस प्रकार चले? अब यदि 'दानादि शुभ क्रियाओं का तो दृश्य फल नहीं होने से अदृश्य फल शुभ कर्म होता है, परन्तु हिंसादि क्रियाओं का दृश्य फल मांस प्राप्ति आदि ही है। ऐसा मानकर मन मना लो, और हिंसादि का अदृश्य फल ही न मानो, तब तो अकेली हिंसादि अशुभ क्रिया वाले का तो मोक्ष ही होगा ! और दानादि शुभ क्रिया करने वाले को इसका अदृश्य फल शुभ कर्म भोगने के लिए संसार में रहना पड़ेगा ! और फिर भवान्तर में भी पुनः दानादि करेगा, तो उससे नये शुभ कर्म, नया भव...., इस प्रकार संसार
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