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में जकड़ा ही रहेगा । किन्तु यह कल्पना मात्र है; हकीकत में यों तो हिंसकादि सब
सब मुक्त हो जाने से अब इतने हिंसक असत्यभाषी आदि क्यों दिखाई पड़ते ? और दानी आदी ही रह जाने से दुनिया में मात्र सुखी ही सुखी दिखाई पड़ते ! किन्तु ऐसा है नहीं, दुनिया में दुःखी ही बहुत दीखते है । इससे पता चलता है कि हिंसादि प्रत्येक क्रिया का दृश्य फल होने पर भी अदृश्य फल कर्म तो होता ही है । इसीलिये ऐसे पाप करने वाले बहुत सों के हिसाब से दुःखी भी बहुत होते हैं ।
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प्रश्न हिंसादि क्रिया करने वाला अदृश्य फल अशुभ कर्म का इच्छुक तो नहीं होता, फिर भी उसे वह मिलता है, और दृश्य फल की इच्छा होने पर भी कई बार नहीं भी मिलता, ऐसा क्यों ?
उत्तर यह बात कर्म का और अधिक प्रमाण है । कषाय और योग (क्रिया) से अदृश्य फल कर्म की उत्पत्ति होती है । अतः हिंसादि क्रिया में अदृश्य कर्म की उत्पत्ति तो अवश्य होती है, जब की द्रश्य फल तो पूर्वकृत तदनुकूल कर्मो का उदय होने पर ही प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं । इसीलिए तो समान सामग्री लेकर व्यापार करने पर कितने ही जनों को वांछित धन नहीं मिलता, अथवा धन-लाभ में अंतर पड़ता है। दृष्ट सामग्री समान होने पर भी सुख दुःखादि फल में भेद होता है, उस भेद का कारण अदृश्य कर्म का भेद ही मानना पड़ता है । 'अदृश्य कैसे काम करे ?' यह मत कहना, कार्य-घट के पीछे परमाणु काम करते ही है भले वे अदृश्य क्यों न हो ?
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प्रश्न - ठीक है, तो भी ये अदृश्य तत्त्व कर्म यह अमूर्त आत्मा की वस्तु से अमूर्त गुण रूप ही सिद्ध होते है न ?
उत्तर - नहीं, ऐसा नियम नहीं कि आत्मा की वस्तु अमूर्त अरूपी ही हो, शरीर आत्मा का ही होने पर भी अमूर्त कहां है ?
'कर्म मूर्त है'
यह इन पांच हेतुओं से सिद्ध होता है,
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ज्ञान
( १ ) जो जो कार्य मूर्त होते हैं उनके कारण भी मूर्त होते हैं; जैसे घड़े के कारण परमाणु मूर्त हैं । कार्य अमूर्त हो वहाँ यह नियम नहीं । उदाहरणार्थ I यह अमूर्त कार्य है, परन्तु उसका कारण आत्मा मूर्त नहीं। बाकी कर्म का कार्य शरीरादि मूर्त होने से, ये कारणभूत कर्म मूर्त सिद्ध होते हैं ।
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(२) जिसके सम्बन्ध से सुख होता है वह मूर्त होता है । जैसे आहार के सम्बन्ध से सुख का अनुभव होता है, तो आहार मूर्त है। इसी प्रकार कर्म के सम्बन्ध से सुख होता है अतः कर्म मूर्त है ।
(३) जिसके सम्बन्ध से वेदना हो वह भी मूर्त होता है; जैसे- अग्नि के
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