Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 85
________________ मात्र कार्य कारण ही क्या, जगत की वस्तुमात्र परस्पर समान-असमान अनुरूप-विलक्षण होती है। फिर भी विशेष कर प्रधान कारण कार्य के अनुरूप कहलाता है इसका अर्थ यह है कि यह कार्य कारण का स्वपर्याय है । और अन्य कार्य कारण का पर-पर्याय है। कारण के ये स्व-पर्याय पर-पर्याय इसी कारण के अनुरूप-अननुरूप, समान-असमान होते हैं । प्रस्तुत में जीव-पुण्य का संयोग यह कारण है, इसका कार्य सुख यह इसका स्व-पर्याय है। सुख जैसे शुभ, शिव कहलाता है वैसे ही पुण्य भी; अत: इस प्रकार अनुरूपता है । बाकी सुख अमूर्त है तो इसका कारण अमूर्त ही हो ऐसा नियम नहीं, क्योंकि अनुरूपता सर्वथा नहीं किन्तु अंश से होती है। (अ) अन्नादि यह सुख के कारण होते हुए भी अमूर्त कहां है ? मूर्त ही है। इसी तरह कर्म भी मूर्त है । प्रश्न - तो फिर अकेले अन्न-पुष्पहार-चंदनादि को ही सुख का कारण मानो, कर्म की क्या आवश्यकता है ? उत्तर - ठीक है, तो प्रश्न है कि कहीं या कभी अन्नादि बाह्य साधन तुल्य होने पर भी सुख में अन्तर होता है, यह क्यों ? कहना होगा कि विलक्षण कर्म के कारण ही ऐसा होता है। (आ) तथा, कर्म मूर्त है, क्योंकि कर्म मूर्त देह का और देहबलाधान का कारण है; जैसे, - मूर्त तेल मूर्त घड़े को दृढ़ करता है । (इ) कर्म मूर्त है, क्यों कि मूर्त पुष्प-चंदनादि विषयों से पुष्ट होते हैं । सुख अरूपी, देह रूपी, इसके कारण कर्म का स्वरूप कैसा ? : प्रश्न - कर्म का कार्य, (१) देहादि तो मूर्त है, और ( २ ) सुख दुःख, क्रोधमानादि ये अमूर्त हैं; तो कारण मूर्त ही अथवा अमूर्त ही ऐसा नियम कैसे बने ? उत्तर - कार्य सुखादि का समवायी कारण तो कर्म नहीं परन्तु जीव है। यह तो अमूर्त है ही । अर्थात् अमूर्त कार्य का अमूर्त कारण मिल के रहा । अब कर्म की बात, कर्म को असमवायी कारण होने से ब्राह्मी आदि की भाँति मूर्त होने में बाधा नहीं है। इस प्रकार स्वभाववाद का निराकरण और कर्मवाद सिद्ध हुआ। अब अकेले पुण्य अथवा पाप की मान्यता का निराकरण इस प्रकार : (३) पुण्य के उत्कर्ष से सुख का उत्कर्ष तो ठीक है; परन्तु पुण्य के अपकर्ष(हानि) से सुख का अपकर्ष हो, किन्तु दुःख बहुलता कैसे? यह तो पाप के उत्कर्ष से ही होना चाहिये । पथ्य आहार घटने पर शरीर की पुष्टि कम हो, यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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