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और आत्मा भी नित्यानित्य सिद्ध होते हैं। इसमें आत्मा घट के पश्चात् पट देखती है, वही घटविज्ञानरूप पर्याय से नष्ट, पटविज्ञानरूप पर्याय से उत्पन्न और जीवत्व रूप से ध्रुव होती है। इस तरह मनुष्य मर कर देवता हुआ वहीं मनुष्यत्व रूप से नष्ट, देवत्व रूप से नवोन्पन्न और जीवत्व रूप से तदवस्थ है। इसलिए परलोक घटीत हो सकता है।
सत् वस्तु मात्र उत्पाद-व्यव-ध्रौव्य त्रिस्वभाव है, क्योंकि सर्वथा असत् उत्पन्न होता नहीं, अन्यथा असत् अश्वश्रृंगादि की उत्पत्ति हो ! सत् सर्वथा ही नष्ट नहीं होता, अन्यथा क्रमशः सर्व प्रलय हो जाय ! अतः वस्तु अमुक रूप में सत् यानी अवस्थित रह कर अमुक रूप में उत्पन्न और अमुक रूप में नष्ट हुआ करती है। राजकुमार का प्रिय स्वर्ण कलश तुड़वा कर राजकुमारी का प्रिय स्वर्ण नूपुर बनवाया गया, तो इसमें वस्तु एक ही है, परन्तु इसके रूपक तीन है। यही वस्तु पर कलश-रूप नष्ट होने से राजकुमार को शोक, व नूपुर-रूप उत्पन्न होने से राजकुमारी को हर्ष होता है, और स्वर्ण-रूप में वैसा ही कायम रहने से राजा मध्यस्थ भाव में रहता है।
(४) परलोक न हो तो स्वर्गहेतुक अग्निहोत्रादि के विधायक वेदवाक्य निरर्थक सिद्ध होंगे।
प्रभु के इस प्रकार समझाने से मेतार्य निःशंक बने, और ३०० परिवार के साथ प्रभु के पास दीक्षित हुए ।
* ग्यारहवें गणधर - प्रभास *
क्या मोक्ष है ? ग्यारहवें प्रभास नामक ब्राह्मण से प्रभु कहते हैं :
'हे आयुष्मन् प्रभास ! तुम्हें जरामर्यं वैतत् सर्वं यदग्निहोत्रम्' 'द्वे ब्रह्मणी, परमपरं च'-ऐसी दो विरुद्ध प्रकार की वेद-पंक्तियां मिली, इनमें यावज्जीव अग्निहोत्र करने का विधान होने से और इसका फल तो स्वर्ग ही होने से ऐसा लगा कि मोक्ष जैसी वस्तु ही नहीं होती, अन्यथा वेदशास्त्र ऐसा उपदेश क्यों दें ? परन्तु ब्रह्म आत्मा के 'पर' 'अपर' ऐसे दो स्वरूप कहे, उसमें तो 'पर' अर्थात् शुद्ध-बुद्ध-मुक्त, इससे तो मोक्ष का प्रतिपादन मिला । अतः शंका हुई कि मोक्ष-वस्तु होगी या क्या ?
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