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को होता है, अतः सुख का आधार आत्मा है । सुख आत्मा का धर्म है। देह आदि तो सुख के साधन मात्र है और वे भी सांयोगिक सुख के साधन । असांयोगिक सुख में साधन की आवश्यकता नहीं होती। मोक्ष में सर्व कर्म-रहित आत्मा अगर विद्यमान है, तो इसे ज्ञान की भाँति सुख क्यों न हो? और वास्तव में सुख, किसी विनश्वर वस्तु की अपेक्षा न रखता हुआ सहज स्वभावभूत हो, वही है । विनश्वर की अपेक्षा रखने वाला सुख तो, उस विनश्वर के नष्ट होते ही दुःख रूप में पलट जायगा। इसीलिए पुण्य-सापेक्ष ज्ञाता का सुख वास्तव में दुःख ही है; क्योंकि शुभकर्मोदयजन्य होने से कर्मोदय खत्म होने पर ज्ञाता नष्ट, इससे भारी दुःख होता है ।
प्रश्न - ऐसा तो उल्टा क्यों नहीं कि पापोदयजन्य दुःख सुख ही है क्योंकि कर्मोदय जन्य है?
उत्तर - ऐसा इसलिए नहीं कि किसी भी अभ्रान्त व्यक्ति को दुःख का सुख रूप से अनुभव नहीं होता है।
प्रश्न - तब तो फिर इष्ट विषय-संयोग में सुख का भी अभ्रान्त अनुभव है ।
उत्तर - नहीं, यह तो दुःखरूप होते हुए भी मोहमूढ़ता के कारण सुखरूप लगता है । यह विषयसुख दुःखरूप इसलिए कि (१) जैसे खुजालादि की उठी हुई चल रूपी दुःख के प्रतिकार मात्र रूप से ही खुजाल में सुख लगता है, इस प्रकार विषय की उत्सुकता से प्रज्वलित अरतिरूप दुःख के प्रतिकार रूप में ही सुख लगता है। इसी लिए तो उत्सुकता मिटते ही यही विषयसंयोग सुखरूप नहीं, बल्कि दुःखरूप लगता है। मिठाई अधिक खाने के पश्चात् इसे देखते ही अरूचि होती है। इसका अर्थ यह कि पेट भर जाने से उत्सुकता की अरति मिटी और कामचलाउ दुःख-प्रतिकार हो गया, जिससे सुख लुप्त ।
प्रश्न - बाद में कुछ भी हो, परन्तु आरम्भ में अमुक संयोग-परिस्थिति रहे वहाँ तक सुख का अनुभव सच्चा न ?
उत्तर - ऐसे सुख के उपासक ने तो भून्ड-म्लेच्छ का मुंह और नरक का अवतार मांग लेना पड़ेगा । क्योंकि भंड के मुख की अमुक प्रकार के रस की स्थिति है, अतः उसे विष्ठा में बढ़िया आनन्द आता है। इसी प्रकार म्लेच्छ को परम आनन्द का अनुभव शराब और मांस में होता है । जब कि नरक के जीव को वहाँ से छूटने की परिस्थिति में अतिशय सुख का अनुभव होता है। यदि यह ग्राह्य हो, तो ऐसी परिस्थिति में जाना चाहिये । वहाँ यदि कहते हो कि यह तो भंड का मतिविपर्यास है, अथवा नारक को महा दुःख से मोक्षमात्र है, सुख कुछ नहीं, तो यहाँ भी विषयसंयोग में भासित सुख में अरतिनिवारण मात्र को छोड़कर और क्या है ? कहो, विषयसुख
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