________________
अग्निताप से पिघलता है यह पिघलना यानी द्रुतत्व-द्रवरूप निवर्त्य विकार है, क्योंकि ताप हटते ही क्रमशः यह द्रवरूप मिट कर सुवर्ण पुनः कठोर हो जाता है । (२) काष्ठ अग्नि से जलकर राख हो जाता है, इसे अनिवर्त्य विकार कहते हैं; क्योंकि अब यह राख हट कर पुनः काष्ठ नहीं होती । आत्मा में राग द्वेष निवर्त्य विकार है, कर्म-संयोग से होने वाले ये कर्मसंयोग था तब तक रहे, कर्मसंयोग हटते ही वे हट गए । अब कर्मसंयोग भी, इसके कारणभूत मिथ्यात्वादि नहीं होने से, कभी होगा नहीं, अतः राग-द्वेष भी कभी होंगे नहीं ।
(८) 'अशरीर वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पशतः ।' यह वेद-पंक्ति भी कह रही हैं कि अशरीरी जैसा कोई व्यक्ति है जिसको प्रिय-अप्रिय सांयोगिक सुख-दुःख स्पर्श नहीं करते । ऐसा व्यक्ति शरीररहित मुक्तात्मा है। इससे भी मोक्ष सिद्ध है। यहाँ ध्यान रहे कि 'अशरीरं... ' इस पंक्ति का 'शरीरसर्वनाश से आत्मा भी सर्वथा नष्ट, अत: अब प्रियाप्रिय का स्पर्श नहीं' ऐसा अर्थ नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'अशरीरी' पद मात्र अभाव का बोधक नहीं, परन्तु अब्राह्मण-अगोरस आदि पद जैसे ब्राह्मणेतर मनुष्य, गोरसभिन्न अन्नादि को लागू होते हैं, वैसे अशरीरी पद किसी विद्यमान भावपदार्थ पर लागू होता है। नहीं तो 'शरीरनाश' जैसा कुछ कहते । 'अब्राह्मण' जैसा नञ् तत्पुरुष समास पद भी यदि मात्र अभावार्थक नहीं, किन्तु क्षत्रियादि-बोधक होता है, तो 'अशरीर' जैसे बहुव्रीहि समास पद का तो पूछना ही क्या ? फिर 'वसन्तं' पद तो स्पष्ट रूप से किसी के रहने का कह रहा है । मात्र प्रभाव ही लेना होता तो साथ में 'सन्तं' पद से काम चल जाता, किन्तु 'वसन्तं' कहा इसलिए 'अशरीर' पद से लोकोपरिस्थित आत्मा ही लेनी चाहिये । 'वा वसन्तं' में 'वा' अर्थात् 'अथवा' कह कर यह सूचित किया है कि सशरीर भी वीतराग को प्रियाप्रिय स्पर्श नहीं करते । यहाँ कोई 'वाऽवसन्त' इस प्रकार 'वा' के बाद यदि 'अ'कार मान कर 'कहीं भी न रहने वाला' अर्थात् 'सर्वथा नष्ट' ऐसा भाव लें, तो गलत है; क्योंकि ऊपर जैसा कहा गया है, अशरीर कोई भाव-पदार्थ ही है, उसके साथ यह घटीत नहीं होता ।
मोक्ष में ज्ञान की सत्ता :
(९) प्रश्न - तो भले ही मोक्ष हो, परन्तु इसमें अब इन्द्रियादि साधन न होने से ज्ञान नहीं होता अतः वह अजीव के समान होगा।
उत्तर - ज्ञान यह आत्मा का करणसाध्य आगन्तुक धर्म नहीं, किन्तु सहज स्वभावभुत धर्म है। यह आवरणों से आवृत है । इन्द्रियादि साधन इन आवरणों को
आंशिक हट कर ज्ञान प्रकट करते हैं। तप-संयमादि द्वारा सर्व आवरण दुर होते ही संपूर्ण ज्ञान सदा के लिए प्रकट हो जाता है। इसलिए, मोक्ष में सर्वदा ज्ञान होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org