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गए पापी को कटा जाने पर भी मृत्यु नहीं होती है, अतः फिर फिर वह शरीर अखंड होता हुआ बार बार छेदन-भेदन सहता है ।
(४) असत्य भाषण के हेतु भूत भय, राग, द्वेष, मोह, अज्ञान जिन्हें नहीं ऐसे सर्वज्ञ प्रभु नारक विद्यमान होने का कहते हैं, यह असत्य कैसे हो सकता है ?
तब 'परलोक में नारक नहीं' इस वेद वचन का अर्थ क्या ? इतना ही कि नारक मर कर तत्काल दूसरे ही भव में नारक नहीं होते ।
इस समझाइश से अकंपित मान गए, और अपने ३०० के परिवार के साथ प्रभु के शिष्य बने ।
* नौवें गणधर - अचल भ्राता :
क्या पुण्य-पाप हैं ? अब नवें अचलभ्राता ब्राह्मण से प्रभु कहते हैं - 'पुरुषेवेदं ग्नि सर्वं' जो कुछ है वह पुरुष ही है इत्यादि वेद वचन से तुम्हें पुण्य-पाप जैसी वस्तु होने के विषय में शंका हुई । इसमें .
पुण्य पाप के सम्बन्ध में पांच विकल्प, पांच मत्त उपस्थित हुए :
(१) अकेला पुण्य ही होता है, पाप नहीं, (२) अकेला पाप ही होता है, पुण्य नहीं, (३) पुण्य-पाप विविध रंगमय मणि की भाँति मिश्रित ही रहकर संमिश्र सुख-दुःख देते हैं, (४) पुण्य-पाप स्वतन्त्र रहकर भिन्न भिन्न फल सुख
और दुःख देते हैं, (५) पुण्य अथवा पाप कुछ भी नहीं, स्वभाव से सुख या दुःख मिलता है।
इसमें (१) प्रथम विकल्प में प्रश्न हो कि अकेले पुण्य में, दुःख कैसे मिले ? इसका उत्तर यह है कि पथ्य आहार की भाँति पुण्योदय की वृद्धि में सुख बढ़ता है और हानि में दुःख बढ़ता है, जब कि (२) द्वितीय विकल्प में कुपथ्य आहार की भाँति जैसे पापोदय बढ़ता है वैसे दुःख भी बढ़ता है, पापोदय के घटते ही दुःख का क्षय हो जाता है, और उसका स्थान सुख ले लेता है। दोनों विकल्पों में पुण्यपाप का अत्यन्त क्षय होने पर माक्ष ... जाता है । (३) तीसरे विकल्प में पुण्य की मात्रा बढ़ जाय तो अकली 'पुण्य' की संज्ञा से पहिचान होती है। इसी तरह अधिक पाप-मात्रा में इससे विपरीत । (४) चौथा विकल्प इसलिए कि सुख दुःख का एक
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