Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 81
________________ यह तो देव-तुल्य हैं ।' उत्तर - प्रथम कोई मुख्य वाच्य-अर्थ होता है, फिर उपचरित अर्थ दूसरे स्थान में बिठाया जाता है । मूल ही की प्रतिलिपि होती है । यदि मूल ही नहीं तो प्रतिलिपि कैसी ? मुख्य सिंह होता है तभी शूरवीर व्यक्ति को ले कर कहते हैं कि यह नरसिंह है। (९) 'देव' 'अमर' 'गीर्वाण', 'दिवौक्स' आदि सब स्वतन्त्र पर्याय मनुष्य पर नहीं किन्तु देव वस्तु पर ही घटित होते हैं । (१०) देव सत्ता न हो तो उच्च तप व दानादि क्रिया निष्फल होनी चाहिये । तब अगर देव ही नहीं, तो सोम, यम, सूर्य, सुरगुरु आदि का प्रतिपादक तथा ईन्द्रादि का आह्वान करने वाला वेदवचन भी निरर्थक सिद्ध होगा । यहाँ देवों के न आने के कारण :- १. दिव्य प्रेम की संक्रांति, २. दिव्य विषयासक्ति, ३. असीम दिव्य कर्तव्यता (अति कर्तव्य-साधन में नियुक्त विनीत पुरुष की भाँति), ४. अनधीन मनुष्य-कार्यता (गृह त्यागी यति की भाँति), ५. अशुभ मृत्युलोक-गन्ध । फिर भी देवताओं के आने के कारण:- १. जिन-कल्याणक-समारोह, २. संशय-विच्छेद, ३. किसी पर तीव्र राग, ४. प्रतिबोधादि संकेत-पालन, ५. वैर, ६. कौतुक, ७. महात्मा के सत्व का आकर्षण या महिमाकरण, ८. मित्र-पुत्रादि अनुग्रह, ९. सांध्वादि-परीक्षा.... आदि है। इन कारणों से देव यहाँ आते हैं । देव को मायातुल्य कह कर सूचित किया कि ऐसी दिव्य समृद्धि भी अनित्य है, तो मानवीय सम्पत्ति का तो पूछना ही क्या ? फिर क्यों इसमें रक्त । इस समझाइश से शंकारहित बने हुए मौर्य पुत्र ने ३५० के परिवार सहित प्रभु के पास दीक्षा ली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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