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' उत्तर ~ नहीं, प्रतिपक्ष इसके अनुरूप अर्थात् मेलवाला होना चाहिए । जैसे 'अपंडित' किसी चेतन पुरुष व्यक्ति को कहते हैं, जड़ घड़े को नहीं । इस प्रकार अलोक यह आकाशरूप लोक के अनुरूप अलग आकाशरूप से सिद्ध है इसलिए लोकस्वरूप आकाश को अलोक आकाश से भिन्न करनेवाला धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय द्रव्य सिद्ध होता है। यह यदि न हो, तो जीव-पुद्गल-अनंत आकाश में तितरबितर हो जाय । फिर औदारिकादि-पुदगलवर्गणा वश जीव में बंध मोक्ष, सुख, दुःख, भव-संसरण आदि कैसे हो ? तथा जीव का जीव पर अनुग्रह भी कैसे ? अतः धर्मास्तिकाय जैसे पानी मछली को, वैसे जीव-पुद्गल को लोक में ही गति में सहायक होता है। गति किसी से अनुगृहीत होती है जैसे-जल से मत्स्य की गति; इससे धर्मास्तिकाय; और स्थिति भी किसी से अनुगृहीत होती है, जैसे कि कोई वृद्ध रास्ते में लकड़ी के आधार पर खड़ा रह सकता है; इससे अधर्मास्तिकाय सिद्ध होता है ।
मोक्ष की आदि नहीं; मोक्ष में अनन्त समा जाते हैं :
शरीरयुक्तता, काल आदि कब से शुरू हुए ? इसका प्रारम्भ है हि नहीं, अनादि से चले आ रहे हैं । सिद्धता की अर्थात् सिद्ध होना कब से प्रारम्भ हुआ, इसकी आदि नहीं । परिमित देश में भी हजारों मूर्त दीप प्रभाएँ समा जाती है, तो इसी सिद्ध क्षेत्र में अरूपी अनन्त सिद्ध समाएँ, इसमें क्या आश्चर्य है। ___‘स एष विगुणो विभुर्न बध्यते ....' यह वचन सिद्ध के सम्बन्ध में कहा है।
इस प्रकार समझाने से मंडित विप्र भी समझ गए और ३५० विद्यार्थीगण के साथ प्रभु के शिष्य बने ।
* सातवें गणधर - मौर्यपुत्र *
क्या देवता हैं ? सातवें मौर्यपुत्र नामक ब्राह्मण आए। उन्हें शंका थी कि देव स्वर्ग है या नहीं ? उनसे प्रभु कहते हैं - 'को जानाति मायोपमान् गीर्वाणान्' ‘स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकम् गच्छति' इस प्रकार दो तरह की वेद-पंक्ति मिलने से तुम्हें देव के होने के विषय में शंका हुई कि 'माया-इन्द्रजाल जैसे देव किसने देखें ?'इससे अर्थात् देव नहीं, ऐसा प्रतीत होता है; व 'पापवारण के लिए शस्त्रसमान यज्ञवाला यजमान स्वर्ग लोक जाता है' इस वचन से देव हैं ऐसा ज्ञात होता है ।
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