Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 87
________________ अंतर्मिलन) होता है, वह मिश्रित कर्म हुआ न ? उत्तर - जैसे शुभ भाव से शुभ कर्म का बन्ध होता है, वैसे पूर्व बद्ध अशुभ कर्म का इस शुभ कर्म में संक्रमण होता है; वैसा ही अशुभ भाव से शुभ बन्ध, व अशुभ का शुभ में संक्रमण होता है । मिथ्यात्व का बन्ध होने के पश्चात् यदि विशुद्ध परिणाम हो, तो उसमें से समकित - मोहनीय का शुद्ध पुंज तैयार होता है, उसका जीव पुनः मिथ्यात्व जाते ही मिथ्यात्व में संक्रमण ( प्रवेश) कर लेता है। इसी तरह संक्रमण मूल कर्म - प्रकृतियों का नहीं, परन्तु आयुष्य कर्म और दर्शनमोह - चारित्र मोह को छोड़कर उत्तर प्रकृतियों का ही संक्रमण होता है । अब देखों कि बद्ध होते शुभ शातावेदनीयादि कर्म में पूर्वबद्ध अशातावेदनीयादि अशुभ कर्म का अथवा बद्ध होते अशुभ में पूर्व बद्ध शुभ कर्म का संक्रमण होता है, वह शुभाशुभ मिश्रकर्म जैसा दीखता है; किन्तु वहाँ तो संक्रमण होने के पश्चात् एक ही शुभ अथवा अशुभ स्वरूप रहता है । संक्रमित होने वाले का स्वरूप तो नष्ट हो जाता है और संक्रमण जिसमें हुआ उसी कर्म का स्वरूप रहता है। जैसे- शाता में अशाता का संक्रमण होता है, अंतर्मिलन होता हैं वहाँ अशाता का स्वरूप मिट कर शातारूप ही हो जाता है, अतः मिश्रित पुण्य-पाप जैसा कोई कर्म नहीं । सारांश, पुण्य और पाप दोनों स्वतन्त्र कर्म है । मिश्रित होते तो देवताओं को केवल सुख - बहुलता और नारकीय जीवों को केवल दुःखातिशय नहीं होता । अतः ये दोनों बहुलता के भिन्न निमित्त स्वतन्त्र पुण्य और स्वतंत्र पाप सिद्ध होते हैं । (७) तथा जगत में अच्छी, बुरी और इसके अभावरूप स्वतन्त्र राशियाँ दिखाई देती हैं, जैसे- मीठा, कडुआ व फीका रस, परन्तु शुभ का अभाव ही अशुभ, या अशुभ का अभाव ही शुभ इतना ही नहीं । मीठा के अभाव में फीका होता है, कडुआ नहीं, कडुआ स्वतन्त्र रस है । रोग मिटा तो आरोग्य तो आया, परन्तु अतिरिक्त शक्ति नहीं आई। यह लाने के लिए अलग दवाई लेनी पड़ती है। दुर्जनता के अभाव में सज्जनता तो कहलाती है, परन्तु महासुकृतकारिता नहीं । अति घोर दुष्कृतकारी तो केवल पाप का भागी होता है परन्तु पुण्य के लेश का भागी नहीं। इस प्रकार महा सुकृतकारी भी महापुण्योपार्जन अवश्य करता है, परन्तु पाप का लेश भी उपार्जन करता है ऐसा नहीं । सुकृत दुष्कृत्य शुभभाव - अशुभभाव, आदि एक दूसरे के अभावरूप नहीं, किन्तु स्वतन्त्र हैं; अतः इनके कार्य पुण्य और पाप भी स्वतन्त्र ही होते हैं । I पुण्य-पाप सम्बन्धी कुछ आवश्यक निर्देश : अच्छे वर्ण-रस-गंध-स्पर्श आदि फल दे वह पुण्य कर्म और बुरे दे वह पाप कर्म । ये कर्म सूक्ष्म कार्मण वर्गणा नामक पुद्गल में से बनते हैं अतः ये भी सूक्ष्म I Jain Education International * ७६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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