Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ प्रश्न - (१) शरीरादि का कर्ता कर्म क्यों ? शुद्ध आत्मा(ब्रह्म) अथवा ईश्वर कर्ता क्यों नहीं ? उत्तर - (१) कुम्हार या लोहार की भाँति उपकरण के बिना यह शुद्ध आत्मा या ईश्वर क्या कर सकता है ? गर्भावस्था में कर्म बिना अन्य कोई उपकरण संभवित नहीं है । रजोवीर्यग्रहण भी कर्म बिना नहीं होता, अन्यथा शुद्ध मुक्त आत्मा को भी होना चाहिए । (२) बिना कर्म के शुद्धात्मा अथवा ईश्वर कर्ता नहीं बन सकते, क्योंकि निष्क्रिय है, अमूर्त है, अशरीरी है, व्यापक है, जैसे - आकाश अथवा एक है, जैसे एक परमाणु । प्रश्न - ईश्वर अपने सर्व व्यापक शरीर से कर्ता बन सकता हैं न ? उत्तर - यदि यह सिद्धांत मान लेते हो कि 'कार्य करने के लिए ईश्वर को भी शरीर चाहिए,' तब तो प्रश्न यह है कि अपना शरीर भी एक कार्य है; इसे बनाने के लिए ईश्वर के पास कौन सा शरीर ? यदि कहते हो कि वह तो ऐसे ही बनता है, तब तो जीवों के शरीरादि भी क्यों ऐसे ही नहीं बना लेता ? यदि कहते हो - 'हां बनाता ही है' तब तो बिना निमित्त उपादान कार्य की आपत्ति ! एवं इसका प्रयोजन क्या ? यदि वह निष्प्रयोजन बनाता रहता है, तब उसे उन्मत्त ही कहें न? फिर मान लो कभी ऐसे ही करता है तो फिर सबको समान ही बना ले, विचित्र क्यों ? कहिये प्रयोजन दया है, दया से करता है, तो सबको अच्छा ही और सुखकारी करे, बुरा और दुःखकारी क्यों बनाता है ? यदि जीवों के कर्मानुसार करता है, तब तो कर्मवस्तु सिद्ध हो गई ! खैर, लेकिन फिर भी अज्ञानी-मूढ व्यक्तियों के निष्फल कार्यों में अथवा उल्टे कार्यों में तथा खूनी-बदमाशों के खून-बदमाशी के कार्यों में ईश्वर का हाथ मानना पड़ेगा, तब इसमें ईश्वर की अपनी सज्ञान दशा अथवा सज्जनता कहां रही ? यदि जीव के अपराध रोकने की अपनी शक्ति न हो तो वह सर्वशक्तिमान् कहां से? यदि ऐसा नहीं तो दण्ड देने की शक्ति किस प्रकार ? यदि कहें कि दण्ड तो जीव के अपने कर्म ही देते हैं तब तो कर्ता के रूप में कर्म ही और कर्मयुक्त जीव ही सिद्ध होता है, ईश्वर नहीं । तो अब मूल प्रश्न आकर उपस्थित होता है - 'पुरुषेवेदं ग्नि'-इस वेद-पंक्ति का क्या ? वेद पंक्ति यह है - 'पुरूषेवेदं ग्निं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् उतामृतत्वस्येशानः, यदन्नेनाधिरोहति, यदेजति, यन्नेजति, यद् दूरे, यद् अन्तिके, यदन्तः सर्वस्यास्य बाह्यतः ।' अर्थात् 'जो कुछ हुआ, और जो होगा, जो अमृतपन का भी प्रभु है, जो अन्न से अतिशय बढ़ता है, जो चलता कंपता है (पशु आदि), जो नहीं चलता कंपता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98