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की आपत्ति लगेगी ! क्यों कि विषमता के विकारभूत ज्वर, खाँसी आदि एक भी विकार मृत्यु के बाद नहीं दीखते, इससे तो मानना चाहिये कि वात-पित्तादि विषम से सम हो गए ! और 'तेषां समत्वमारोग्ये' 'आरोग्य में उसका समत्व' कहा है, तो अब तो उल्टा पुनर्जीवन होना चाहिये ! तुम ही कहते हो वातादि सम हों तो चैतन्य हो ।
प्रश्न - सम वातादि वहाँ है ही नहीं, क्यों कि विकारों में रक्त आदि की विकृति मिटी ही नहीं, फिर पुनः चैतन्य कहां से आए ?
उत्तर - तो फिर यह कहो कि विकार क्यों न मिटे? ये साध्य थे अथवा असाध्य ? साध्य हो तो उपचार से मिटने चाहिये । यदि कहिये असाध्य है तो यह कैसे ? क्या असाध्यता (१) वैद्य के अभाव में ? (२) या औषधि के अभाव में ? अथवा (३) आयु के क्षय के कारण ? ।
(१) वैद्य के अभाव में नहीं, क्योंकि वैद्य होते हुए भी कई मरते हैं । (२) इसी प्रकार औषधि की कमी से भी नहीं, क्यों कि इसी औषधि से पूर्व में नीरोगिता की प्राप्ति हो चुकी है। (३) आयु के क्षय से कहो, तो यह आयुष्यकर्म कहां से आया ? एक ही माता के दो पुत्रों की मृत्यु में अन्तर होता है, दूसरा पता चलता है कि आयुष्य चैतन्यात्मक देह का धर्म नहीं । तो कहना चाहिये कि आत्मा ही पूर्व भव से ऐसा कर्म लेकर आई है, जो पूर्ण होते ही आत्मा का संबंध छूट गया, जिससे मुर्दे में चैतन्य नहीं दीखता । तात्पर्य यह है कि चैतन्य भूत का धर्म नहीं है । 'घड़े आदि भूत समूह में अथवा मुर्दै के भूत-पंचक में विशिष्ट संयोग नहीं, अगर निकल गई है, अतः चैतन्य नहीं' - ऐसा यदि कहते हो तो इसमें भी 'विशिष्ट' का अर्थ तो यही कि आत्मा निकल चुकी है।
प्रश्न - चैतन्य शरीर का धर्म दीखता है इसे इसका धर्म नहीं और अन्य का कहना यह 'घड़े का दीखता लाल वर्ण घड़े का नहीं पर अन्य का'-ऐसी मान्यता जैसा क्या प्रत्यक्ष-विरुद्ध नहीं लगता ?
उत्तर - मात्र प्रत्यक्ष को क्या करें ? भुमि में से निकलता हुआ अंकुर भूमि का दिखाई पड़ने पर भी थोड़े ही भूमि का धर्म माना जाता है ? यह तो बीज का धर्म है, अन्यथा बिना बीज के यह क्यों नहीं निकलता दीखता ?
(१) वैसे ही बिना जीव उसी शरीर में चैतन्य न होने से, चैतन्य शरीर का नहीं किन्तु जीव का ही धर्म है । जहाँ प्रत्यक्ष का बाधक अनुमान प्रमाण मिलता है वहाँ प्रत्यक्ष-विरोध नगण्य वन जाता है । आज प्रातः से खाया नहीं, और दुपहर को पेट में दर्द हआ, फिर भी यह दर्द आज के प्रत्यक्ष भृख रहने से नहीं हआ परन्तु
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