Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 59
________________ भी इच्छा-देह-सुखदुःखादि-इच्छा-देह-सुखदुःखादि पूर्वक ही है । उन पूर्व का अनुभव करने वाला जीव ही हो सकता है । (१२) देह और कर्म का बीजांकुर की भाँति अनादि प्रवाह चला आ रहा है; यह कर्ता (भिन्न जीव) के बिना नहीं हो सकता । (१३) दंड से बनने वाले घड़े के लिये दंड कर्ता नहीं, करण है, वैसे शरीर से होने वाली क्रिया के लिये शरीर स्वयं कर्ता नहीं परन्तु करण है, साधन है । घड़े के कर्ता कुम्हार की भाँति यहाँ कर्ता आत्मा है । (१४-१८) प्रथम गणधर में जैसा कहा गया है, वैसे (i) घर की भाँति निश्चित (अमुक ही) आकार वाले शरीर का कर्ता चाहिये। (ii) गंदे वस्त्र को उज्जवल बनाना, रंगना, उस पर प्रसन्न होना, आदि की भाँति शरीर को उज्जवल करना, सुशोभित करना इत्यादि शरीर का भोक्ता और ममत्व-कर्ता खुद शरीर नहीं, कोई ओर होना चाहिये । (iii) खंभे, खिड़की, दरवाजे की भाँति हाथ पांव सिर आदि की सुरक्षा चाहने वाला कौन ? शरीर नहीं क्यों कि यह तो समूचे घर की भाँति अंगो का समूह मात्र है। (iv) लोहे और संडासी की भाँति विषयों और इन्द्रियों के बीच ग्राह्य – ग्राहक भाव होने के लिये स्वतंत्रेच्छ कुम्हार की भाँति आत्मा चाहिये । (v) जो अन्य देश-काल का अनुभव किया हुआ याद करें, वह अविनष्ट होता है। इसी तरह अन्य द्वारा अनुभूत अन्य को याद नहीं आता । अतः पूर्व देह नष्ट होते हए भी नये शरीर से जो पूर्व देह में अनुभूत का स्मरण करने में समर्थ है वह शरीर से भिन्न आत्मा ही है । क्षणिकवाद उचित कैसे नहीं ? प्रश्न - क्षण परम्परा में संस्कार उतर आने से स्मरण होता है न? एक नित्य आत्मा की क्या आवश्यकता ? उत्तर - परम्परा में भी एक ओतप्रोत व्यक्ति चाहिये, जो संस्कार को टिकाने के लिये आधार हो, अन्यथा ज्ञान और संस्कार सर्वथा नष्ट होने के पश्चात् ठीक वैसा ही स्मरण नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त - (१६) जगत के सभी पदार्थों को क्षणिक रूप में देखे बिना 'जो कुछ सत् है वह क्षणिक है' ऐसा कौन जान सकता है ? इसी तरफ स्वयं ही अगर क्षण मात्र रह कर पश्चात् नष्ट हो, तो स्वयं को, अतीत-भावी का, स्वयं के साथ कोई सम्बन्ध न होने से, 'अतीत काल में क्या हुआ था, भविष्य में क्या होगा इसका कैसे पता चले ? तात्पर्य यह है कि द्रष्टा ज्ञाता एक अविनाशी आत्मा होनी चाहिये ।। प्रश्न- 'अपने जैसे सब', इस प्रकार सब को क्षणिक रूप से जान सके न ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98