Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 76
________________ नष्ट होता है ? कहने का सार यह है कि जीव का बंध या मोक्ष है ही नहीं । उत्तर पक्ष :- बंध - मोक्ष है : (१) शरीर और कर्म की परम्परा अनादि है, जैसे बीज और फल की परम्परा । बिना कारण कार्य नहीं होता, अतः मानना होगा कि कर्म किसी पूर्व शरीर से बने हुए है । वह शरीर इसके पूर्वकृत कर्मों से बना हुआ था । .... इस प्रकार अनादि प्रवाह चला आ रहा है । परन्तु ध्यान में रहे कि कर्म और शरीर ये दोनों तो कारण रूप हैं, साधनरूप हैं, जब कि कर्ता जीव है । जीव के कर्म करने में शरीर साधन है और शरीर बनाने में कर्म साधन है। इस प्रकार कर्म जीव के साथ संबद्ध होते है अतः जीव का बंध सिद्ध होता है। प्रश्न - कर्म हो तो दिखाई दे न ? उत्तर - कर्म भले ही अतीन्द्रिय अप्रत्यक्ष हों, परन्तु कार्य के आधार पर इनका अनुमान होता है। वैसे तो तुम्हारी बुद्धि-अक्ल भी दीखती नहीं, तो क्या यह नहीं है ? क्या तुम बुद्धिहीन हो ? 'न दिखे वह चीज नहीं यह नियम नहीं ।' (२) अनादि का नाश होता ही नहीं-ऐसा एकान्त नहीं है। अनादि कर्मसंयोग-परम्परा का अन्त हो सकता है, जैसे बीज सेका गया, अथवा फल जल गया, तो इसकी अनादि से चली आ रही परम्परा का अन्त आता है । पुत्र ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया तो उसके पूर्व की, पिता-पुत्र पिता-पुत्र इत्यादि चली आ रही, अनादि परम्परा का अन्त आता है । मुर्गी अण्डा देने से पहले मर गई, अथवा अण्डा फूट गया, तो उसके आगे परम्परा न चलने से उसकी अनादि परम्परा अब आगे नहीं बढ़ेगी । अतः जैसे स्वर्ण-मिट्टी का सम्बन्ध प्रारम्भ से ही होने पर भी अग्नि-तापादि उपाय से टूटता है, उसी प्रकार तपसंयमादि उपाय से जीव-कर्म का संबंध भी नष्ट हो कर मोक्ष हो सकता है। इतना अवश्य है कि मोक्ष भव्य का होता है, अभव्य का नहीं। भव्यत्व क्या ? कैसा ? प्रश्न - कोई भव्य, कोई अभव्य क्यों ? नारक तिर्यंच की भाँति यह भेद कहते हो तो वह कर्मकृत सिद्ध होगा। उत्तर - नहीं यह स्वभावकृत भेद है । सत् रूप से समान होने पर भी जैसे स्वभाव से कोई चेतन, कोई अचेतन, ऐसे भेद होते हैं, इसी तरह जीव रूप से समान होते हुए भी कोई भव्य और कोई अभव्य ऐसे भेद सहज अनादिसिद्ध है । प्रश्न - भव्यत्व यदि जीवत्व की भाँति सहज अर्थात् अनादि हो तो नष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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