Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 47
________________ है। इससे सूचित होता है कि सुख दुःख का नियमन करने वाला कोई कारण अवश्य है और वह है कर्म । (२) वर्तमान शरीर और पूर्व भव के शरीर के बीच कर्म शरीर (कार्मण शरीर) न हो तो इसका अर्थ यह है कि आत्मा बीच में शुद्ध थी । तो फिर इसे इस जीवन में अमुक शरीर आदि ही क्यों मिले ? प्रश्न - पूर्व शरीर के सुकृत दुष्कृत के हिसाब से ऐसा हो सकता है न ? उत्तर - नहीं, क्योंकि कार्य शरीरादि अब होते हैं और कारणभूत सुकृतदुष्कृतक्रिया तो पूर्व भव में की थी तभी नष्ट हो गई । अब कार्य के लिए नियम तो ऐसा है कि कारण कार्य के पूर्व क्षण में रहना ही चाहिए । उदाहरण के लिए भोजन की क्रिया तो की, परन्तु फिर तुरन्त कुछ ऐसा खा लेने से वमन हुआ तो शरीर की पुष्टि क्यों नहीं होती? भोजन क्रिया से शरीर की पुष्टि होती है? वह क्रिया तो पहिले की गई है इससे पुष्टि होनी चाहिए । परन्तु कहना चाहिए कि इस क्रिया से रस, रूधिर आदि बने हो तो पुष्टि हो न? लेकिन वमन से बने ही नहीं । इसी प्रकार सुकृत दुष्कृत से शुभाशुभ कर्म बने हो, जो कि आत्मा के साथ चले आए, तभी यह वर्तमान शरीर बनता है। (३) जीव दानादि क्रिया करता है इसका फल क्या ? जैसे कृषि का फल फसल होता है, तो दान का भी कुछ फल होना चाहिए, वही कर्म है। प्रश्न - ऐसे तो कृषि निष्फल जाती हैं न ? उत्तर - जाती तो है यदि अन्य सामग्री में कमी हो; परन्तु फिर भी सफल समझ कर की जाती है और अन्य सामग्री पूरी हो तो फल नि:सन्देह आते ही है। तो दानादि का फल क्या ? प्रश्न - मन की प्रसन्नता को फल कह सकते हैं न? जैसे - सुपात्रदान से चित्त आह्लादित मालूम होता है। उत्तर - ठीक है, परन्तु यह भी एक क्रिया है तो इसका भी फल क्या ? प्रश्न - इसका फल अन्य दानादि क्रिया । उत्तर - परन्तु अन्तिम मन की प्रसन्नता जिसके पीछे दानादि क्रिया नहीं हुई उसका फल क्या ? तो कहेंगे कर्म । प्रश्न - फल तो जैसे हिंसा का द्रश्य फल मांस-प्राप्ति, ऐसे ही दानादि का दृश्यफल प्रशंसा, कीर्ति आदि मान सकते हैं, - फिर अदृश्यफल मानने की क्या आवश्यकता है ? संसार में भी दिखाई देता है कि प्राय: जीव यहाँ प्रत्यक्ष फल मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98