Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 45
________________ से बराबर है। (i) कर्म दो प्रकार के होते हैं :- पुण्यानुबन्धी और पापानुबन्धी । पुण्यानुबन्धी कर्म वे हैं जिनके उदित होने पर पुण्योपार्जन की परिस्थिति उपस्थित होती है। पापानुबन्धी कर्म वे है जिनके उदित होने पर पापोपार्जन की प्रवृत्ति होती है । भोग्य कर्म भी कोई शुभ होते हैं तो कोई अशुभ । इस प्रकार इनके कुल चार भेद होते है : (१) पुण्यानुबन्धी पुण्य, (२) पापानुबन्धी पुण्य, (३) पुण्यानुबन्धी पाप, (४) पापानुबन्धी पाप । इनमें से वर्तमान में जो लोग हिंसक, निर्दयी, दुराचारी आदि होते हुए भी सुखी है, उनको पापानुबन्धी पुण्य का उदय गिना जाता है । कर्म-बन्धन अभी ही किया और तत्काल उनका उदय हुआ, - बहुधा ऐसा नहीं होता है । जिन जीवों ने पूर्व भव में दान, शील, तप, प्रभु-भक्ति ये पुण्योपार्जन किया तो है किन्तु सांसारिक आकांक्षा से, उन्हें इस जन्म में लक्ष्मी आदि के सुख जरूर मिलते हैं परन्तु दूसरी ओर हिंसादि पाप कार्यों में ये लीन होते हैं। पूर्व भव में दुष्ट आकांक्षा की, अतः इसके कुसंस्कार यहाँ चले आने से मोहमूढ राग व लालसाएँ होती है। इसके विपरीत जिसने पूर्व में पापाचार किये हैं, परन्तु पीछे पश्चाताप और धर्म-कार्य किए हैं, उन्हें यहाँ पाप के फल दुःख तो वहन करने ही पड़ते हैं, परन्तु साथ ही पूर्व के पाप-घृणा के सुसंस्कारवश सद्गुरू का समागमन, सद्वाचन, सद्विचार आदि के द्वारा धर्माराधन व सद्गुणाभ्यास करने को भी मिलता है । सद्गुणों को वह ग्रहण करता है। इससे नवीन सम्पत्ति में पुण्य इकठ्ठा होता जाता है; इसे पुण्यानुबंधी अशुभ कर्म का उदय कहते हैं । इसमें जिनेश्वर देव के चरण कमल की पूजा में परायणता, दया, व सदाचार होते हैं । इन सब का फल भावी भव में प्राप्त होगा। व्यवहार में भी दीखता है कि लग्नादि प्रसंगो में भारी पदार्थ सीमा से परे खाए पीए हों, तो फिर शरीर रूग्ण होता है और भूखा रहना पड़ता है। अब भूखा रहते समय यदि कोई कहे कि ये भाई साहब ने तो आज कुछ भी नहीं खाया फिर भी ये बीमार क्यों ? बस इस पर 'कम खाने से बीमारी होती है' ऐसा नियम बना लें तो गलत है। इसी तरफ एक व्यक्ति के शरीर में शक्ति (vitality) का प्रचार अच्छा हो उन दिनों में वह कदाचित् कुपथ्य सेवन कर ले, आवश्यकता से अधिक खा ले और फिर भी हृष्ट-पुष्ट होता दिखाई दे, और इस पर यदि कोई नियम बना ले कि 'अत्याधिक खाने से और भारी पदार्थ खाने से सुखी बनते हैं' तो यह नियम भी गलत । यहाँ जो रोग या आरोग्यता है, वह पूर्वाचरण का फल है, और वर्तमान में जो आचरण हो रहा है उसका फल तो भविष्य में मिलेगा। इसी प्रकार धर्म अधर्म *३४ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org


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