Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 36
________________ कि यदि ज्ञान चेतन का स्वभाव न हो तो ज्ञान रहित काल में चेतन का चैतन्य स्वरूप क्या ? मोक्ष में तो सदा ज्ञान हीनता ही आयेगा अर्थात् जड़ पत्थर जैसी मुक्ति बनेगी। न्याय दर्शन साथ ही आत्मा को एकान्त से नित्य और विश्वव्यापी कहते हैं, परन्तु यह यदि नित्य ही अर्थात् अपरिवर्तनीय ही हो तो समय-समय पर भिन्न २ अवस्थायें कैसे हो सकती हैं ? मोक्षमार्ग किसलिए? क्योंकि इससे उसमें कोई परिवर्तन तो होगा नहीं । वैसे विश्वव्यापी अर्थात् भवांतर या देशांतर में गमनागमन किस प्रकार? और सुख-दुःख का ज्ञान शरीर में ही क्यों ? बौद्ध दार्शनिक कहते हैं कि आत्मा विज्ञान स्वरूप और क्षणिक है। इसमें क्षणिक होने से परिवर्तन तो होता है परन्तु मूल ही गायब हो जाता हो, क्षण में सर्वथा मूलतः नष्ट हो जाता हो तो पूर्वकृत कर्मों का भोक्ता कौन ? यदि कर्म भोगता है, तो क्षणिक होने से पूर्व में स्वयं तो था ही नहीं फिर ये कर्म किसने किये ? स्मरण भी कैसे हो सकता है ? पहिले जाने, फिर इच्छा करें, फिर प्रवृत्ति करें, पहिले तत्त्वज्ञान, फिर चिंतन, फिर मनन-ध्यान, ये क्रमिक क्रियाएँ क्षणिक यानी एकक्षण-स्थायी आत्मा में संगत कैसे हों ? यदि आत्मा विज्ञान स्वरूप ही हो तो आत्मा 'गुण' वस्तु हुई, 'द्रव्य' नहीं । फिर गुण का आधार कौन ? यदि कहें कि 'यही गुण और यही द्रव्य,' तो फिर क्रिया क्या ? इसी प्रकार अन्य गुण भी कैसे घटित हों ? क्यों कि गुण में तो गुण रहेगा नहीं। यह सब देखते हुए निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा अनेक हैं; देह परिमाणमय हैं, नित्य भी है, साथ क्षणिक अर्थात् अनित्य भी है, कर्मों के कर्ता और भोक्ता दोनों हैं, कर्मबद्ध होती हैं और मुक्त भी होती हैं, ज्ञान स्वरूप भी है और ज्ञान से भिन्न द्रव्य स्वरूप भी हैं। जैन दर्शन अनेकान्त द्रष्टि से आत्मा के ये सभी स्वरूप मानता है । इससे जैन आगम वैसी आत्मा के सम्बन्ध में प्रमाण स्वरूप मिलते हैं । दया-दान-दमन से आत्म-सिद्धि इस प्रकार आत्मा जैसी वस्तु नहीं, - ऐसे नास्तिकवाद का खंडन कर के प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाणों से आत्मा सिद्ध की गई। यहाँ प्रभु श्री महावीरदेव गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति से कहते हैं : 'हे गौतम इन्द्रभूति ! यदि आत्मा स्वतन्त्र तत्त्व है, तो ही तेरे वेदशास्त्र में कथित अग्निहोत्रादि यज्ञ के स्वर्गफल आदि घटित हो सकते हैं । यदि आत्मा ही न हो तो यहाँ से मर कर स्वर्ग में किसका जाना ? इसी तरफ 'द द द' दया, दान और दया - इन तीन की भी क्या आवश्यकता? निसर्ग का नियम है कि जैसा दो वैसा लो, जैसा बोवो वैसा फल पाओ । अब जैसे दुःख आपनी आत्मा को प्रिय नहीं होता, वैसे ही दूसरे को भी प्रिय नहीं होता, तब दूसरों को दुःख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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