Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 42
________________ क्रिया किये बिना छाछ में मक्खन संयुक्त द्रव्य दूध में पानी अशिक्षण जोहर आदि पहिचान में न आए देवमाया कोयले के रूप में परिवर्तित सुवर्ण अतः कर्म नहीं दिखाई देते इसी पर से कर्म है ही नहीं ऐसा नहीं कह सकते। (१-ब) अब दूसरा प्रश्न - 'कर्म हमें दिखाई नहीं देते अतः कर्म नहीं हैं', ऐसा नहीं कह सकते; क्यों कि भले हमें न दिखाई दें परन्तु दूसरे की दृष्टि में हों ऐसी भी कई चीजें हैं। अत: 'नहीं, किसी को भी दिखाई नहीं देते, अतः कर्म नहीं' ऐसा कहना गलत है; क्यों कि प्रथम तो कहां हमें सभी जीव ही दिखाई देते हैं कि कोई भी कर्म को देखने वाला नहीं है इसका पता चले ? दिखाई पड़ने वाले जीवों में भी कैसा और कितना ज्ञान है यह हम कहाँ देख सकते है ? भविष्य में कोई भी देखने वाला नहीं होगा ऐसा भी कैसे कह सकते हैं ? अतएव इस प्रकार कर्म को स्वीकार न करना उचित नहीं है । तो, 'कर्म घटमान नहीं' इसके ३ कारण :(२) 'कर्म जैसी चीज घटित नहीं हो सकती' ऐसा जो कहा इसमें क्या (i) कर्म को ले जाने वाला कोई परलोकी नहीं अतः ? या (ii) भले परलोकगामी कोई हो, तो भी कर्म विचार-संगत नहीं, विचार की कसौटी पर टिक सकती नहीं अतः ? अथवा (iii) क्या ऐसा कहें कि वस्तु के स्वभाव से ही जगत में सब कुछ होता है, अतः कर्म मानने की क्या आवश्यकता है ? (२-i) परलोकगामी कोई चीज ही लो नहीं, फिर कर्म को कौन साथ जाए? और इस जीवन के लिए तो कर्म कुछ भी उपयोगी नहीं, - इस प्रकार नहीं कहा जा सकता, क्यों कि परलोकगामी आत्मा सिद्ध हो चुकी है। इसी लिए 'स्वर्ग' की इच्छा वाले के लिए 'अग्निहोत्र यज्ञ करना' आदि वेदवाक्य घटित हो सकते हैं; अन्यथा यदि आत्मा ही नहीं तो यज्ञ करके किस का स्वर्ग-नरक में जाना ?' (२-ii) कर्म विचार-संगत नहीं; क्यों कि कर्मों की अनिमित्तक मानें ? अथवा सनिमित्तक ? अनिमित्तक अर्थात् कारण सामग्री बिना जन्म लेने वाले । सनिमित्तक अर्थात् निमित्त हेतु से उत्पन्न होने वाले । दोनों विकल्पों में से प्रथम विकल्प मानने में नहीं आता, क्योंकि कर्म यदि हेतु बिना सहज भाव से ही जन्म लेते हों, तब तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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